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भेद एकांतवाद का खण्डन ]
। खण्डन
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तृतीय भाग
[ २८३
प्रागसतः सत्तासमवायात् कार्यस्योत्पत्तेः सफलमेव तत्परिकल्पनमिति चेन्नानुत्पन्नस्य सत्तासमवायासंभवात्, उत्पन्नस्यापि तद्वैयर्थ्यात्', स्वरूपलाभस्यैव स्वरूपसत्तात्मकत्वात्, स्वरूपेणासतः सत्तासंबन्धेतिप्रसङ्गात् । यदि पुनरुत्पद्यमानमेव कार्यं सत्तासमवायीष्यते, प्रागसतः
वैशेषिक-समवाय भी विशेष्य भाव संबंध से समवायियों से संबंधित है।
जैन-ऐसा नहीं है। क्योंकि पुन: वह भी भिन्न-भिन्न विशेषण विशेष्य भाव संबंध से अपने संबंधियों से संबंधित होगा, इत्यादि रूप से अनवस्था दोष आ ही जायेगा। अन्यथा यदि विशेषण विशेष्य भाव के बिना स्वयमेव स्वसंबंधियों के साथ सम्बन्ध मानने पर संबंध का ही विरोध आ जायेगा। यदि आप योग उस विशेषण-विशेष्य भाव को अपने संबंधियों के साथ कथंचित् तादात्म्य रूप मानोगे तो पुन: कार्य कारणादिकों में भी वह तादात्म्य कथंचित रूप से मान लीजिये । पुनः सत्ता सामान्य के समान ही भिन्न पदार्थभूत कल्पित समवाय की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इसको मानना निष्फल ही है।
शंका-सत्ता समवाय से पहले असत् रूप कार्य की उत्पत्ति होने से उस सत्ता समवाय की परिकल्पना करना सफलभूत ही है।
समाधान- ऐसा नहीं कहना। क्योंकि अनुत्पन्न-कार्य से सत्ता समवाय ही असंभव है। और उत्पन्न रूप कार्य में भी वह सत्ता समवाय व्यर्थ ही है। क्योंकि जिसने स्वरूप लाभ प्राप्त कर लिया है ऐसा उत्पन्न हुआ कार्य ही स्वरूप सत्तात्मक है। अर्थात् स्वरूप के अस्तित्व में भिन्न पदार्थभूत कोई अस्तित्व है ही नहीं।
क्योंकि स्वरूप से असत् रूप पदार्थ का सत्ता के संबंध से अस्तित्व स्वीकार करेंगे तब तो अति प्रसंग दोष आ जायेगा। अर्थात् खरविषाणादिकों में भी सत्ता संबंध से अस्तित्व का प्रसंग आ जायेगा। यदि पुनः उत्पन्न होता हुआ ही कार्य सत्ता समवायी है ऐसा आपने स्वीकार किया है। तथा असत् कार्य के पहले सत्ता समवाय, उत्पाद है। इस प्रकार का वचन है। केवल समवाय सत्ता सामान्य के
1 अत्राह वं. हे स्या० पूर्व मविद्यमानस्य घटादिकार्यस्य सत्ता समवायात् कार्यस्योत्पत्तिदर्शनात् सत्तासामान्यकल्पन सफलमेव स्यादिति चेत् स्याद्वाद्याह हे वै० यदुक्तं त्वया सत्तासामान्यं सफलं तन्न । कुतोऽनुत्पन्नस्य कार्यस्य सत्तासमवायो न संभवति । यतः। उत्पन्नस्य कार्यस्य सत्तासमवायो व्यर्थः स्याद्यतस्तत: कार्यस्य प्रादुर्भाव एव स्वरूपसत्तान्यो नास्ति यतः। स्वरूपेणाविद्यमानस्य कार्यस्य सत्तासंबन्धो भवति चेत्तदा खरशृङ्गस्यापि सत्ता भवतीति लक्षणोतिप्रसङ्गः स्यात् । दि० प्र०। 2 ता । ब्या० प्र०। 3 स्वरूपसत्त्वं कृत्वा समवायः सफलो भविष्यतीत्याशंकायामाह । दि० प्र०। 4 स्या० वदति हे योग यदि चेदुत्पद्यमानमेव कार्य सत्तासमवायवत्त्वया प्रतिपाद्यते कुतः पूर्वमविद्यमानस्य कार्यस्य सत्तासमवाय एव उत्पाद इति स्वसिद्धान्तवचनात् । पुनः कस्मात् । यथा सत्तासामान्य नित्यं तथा केवलसमवायश्च नित्यस्तस्मात्कारणादुत्पाद इति जान नोत्पादयति कोर्थः प्रमाणविषयो न भवति स्वसंज्ञा च जनयति । कोर्थो वाग्गोचरश्च न भवति यतः । इति वैशेषिकमतमल्लिख्य तन्मतं खण्डयति स्याद्वाद्याह तदा। दि० प्र०।
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