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________________ २७८ ] अष्टसहस्री [ च० ५० कारिका ६३ वृक्षवत् । वर्णादिभिरनैकान्तिकत्वमित्ययुक्तं, तद्वयतिरेकैकान्तानभ्युपगमात् । यथैव हि वर्णरसगन्धस्पर्शानां स्वाश्रयादत्यन्तभेदो नेष्टो दृष्टोवा तथा परस्परतोपीति । नाप्येतैः पक्षकदेशात्मभिर्व्यभिचारो नामातिप्रसङ्गात् । यदि पुनः कार्यकारणादीनां समानदेशकालत्वमररीक्रियते तथैव सिद्धान्तावधारणादिति मतं तदाप्यवयवावयविनोः समानदेशे वृत्तिन भवेत्, मूर्तिमत्त्वात्खरकरभवत्, मूर्तयोः समानदेशत्वविरोधात् । वातातपयोः समानदेशत्वदर्शनादविरोध इति चेन्न, तयोः स्वावयवदेशयोरवय' विनोरभ्युपगमात् । तन्तुपटयोरपि स्वा भिन्न नहीं हैं । पक्षीकृत गुण-गुणी आदि के साथ एक देश स्वरूप-पक्ष के अतर्भूत स्पर्श, रस, गंध वर्णों से भी व्यभिचार दोष नहीं आता है । अन्यथा अति प्रसंग आ जायेगा अर्थात् "पृथ्वी आदिक बुद्धिगत हेतूक हैं क्योंकि कार्य रूप हैं, इसके उत्पन्न पक्ष के एक देशात्मक, तृण, पर्वत आदिकों में बुद्धिगत हेतुक का साध्य का अभाव होने पर भी “सत्व" होने से तृर्ण पर्वतादिकों से व्यभिचार का प्रसंग आ जायेगा। योग-हम कार्य कारणादिकों का समान देश, कालत्व स्वीकार करते हैं क्योंकि उसी प्रकार सिद्धान्त अवधारित है। __ जैन-यदि आप ऐसा कहते हैं तो भी अवयव और अवयवी की समान देश में वृत्ति नहीं हो सकेगी। क्योंकि गर्दभ और ऊँट के समान वे मूर्तिमान हैं। एवं मूर्तिमान पदार्थ में समान देश का मानना विरुद्ध ही है। योग-वायु और आतप में समान देशता देखी जाती है । अतः कोई विरोध नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते । उन वायु और आतप में अपने-अपने अवयव रूप देश के होने से उन दोनों को अवयवी रूप माना है न कि अवयव, अवयवी रूप । योग-तन्तु और वस्त्र में अपने-अपने अवयव देश होने से समान देशत्व का अभाव है अतः कोई दोष नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कहना। अन्यथा परमाणु और द्वयणुक में भिन्न देश का अभाव होने से समान देशता भी नहीं हो सकेगी। इस प्रकार से अनेक दोष उद्भूत हो जायेंगे। अर्थात् परमाणु तो निरवयव रूप हैं इसलिये उनमें भिन्न देश का अभाव है, पुन: समान देशता भी न रहने से अनेक दोष आ जायेंगे। 1 भेदैकान्तः । दि० प्र० । 2 द्रव्यात् । ब्या० प्र०। 3 अत: कारिकार्द्धव्याख्या । दि० प्र०। 4 बसः । भ्या० प्र०। 5 तनुकरणभुवनादिकं धीमत्हेतुकं कार्यत्वादित्यत्र पक्षकदेशात्मसु तृणपर्वतादिषु धीमत्हेतुकत्वलक्षणसाध्याभावे विद्यमानस्याप्यत्यन्तभिन्नत्वलक्षण हेतोस्तैर्व्यभिचारोनाङ्गीकर्तव्य इति भावः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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