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________________ २७४ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ६२ इति चेन्नायं प्रसंगोनेकान्ते, कथंचित्तादात्म्याद्वेद्य वेदकाकारज्ञानवत्' । यथैव हि ज्ञानस्य वेद्यवेदकाकाराभ्यां तादात्म्यमशक्यविवेचनत्वात् ' किमेकदेशेन सर्वात्मना ' वेति विकल्पयोर्न ' विज्ञानस्य सावयवत्वं बहुत्वं वा प्रसज्यतेनवस्था वा, ' तथावयव्यादेरप्यवयवादिभ्यस्तादात्म्यमशक्यविवेचनत्वादेव नैकदेशेन प्रत्येकं सर्वात्मना वा यतस्ताथागतः सर्वथा भेदे इवावयत्रावयव्यादीनां कथंचित्तादात्म्येपि वृत्ति दूषयेत् । संयोग आदि की कल्पना को निरस्त कर दिया । वास्तव में इन वैशेषिकों का कहना है कि थाली और दही ये दो पदार्थ संयोगी हैं और संयोग नाम का तीसरा गुण इनसे पृथक है जो कि इन दोनों में 'थाली में दही है' इस प्रकार के संयोग को कराता है । किन्तु जैनाचार्य समझाते हैं कि भाई ! यदि थाली और दही दोनों अलग-अलग पड़े हैं तो संयोग गुण क्या करेगा ? और यदि थाली में दही डाल दिया गया तो भी संयोग गुण ने क्या किया ? अतः 'थाली में दही के रहने का नाम ही संयोग है' न कि अन्य कोई संयोग गुण है । अतः अवयव अवयवी, कार्य-कारण आदि में कथंचित् अभेद स्वीकार करना ही चाहिये । इस प्रकार से वृत्ति में दोष जैसा वर्णित किया गया वह सब स्याद्वादियों के यहाँ भी आता है। जैन - नहीं | ये दोष हमारे अनेकांत में नहीं आ सकते हैं। क्योंकि वेद्यवेदाकाकार के समान कथंचित् तादात्म्य स्वीकार किया गया है । जिस प्रकार से विज्ञान में वेद्य-वेदकाकार के द्वारा तादात्म्य - अभेद है क्योंकि उनका अलगअलग विवेचन अशक्य है । प्रश्न यह होता है कि ज्ञान में तादात्म्य क्या एक देश से है या सर्वदेश से ? इत्यादि विकल्पों के करने पर ज्ञान में अवयव सहितपना अथवा बहुतपने का प्रसंग नहीं आता है और न अनवस्था का ही प्रसंग आता है । उस प्रकार से अवयवी आदिकों में अवयवादि से तादात्म्य है क्योंकि अशक्य विवेचन ही है । अत: एक देश से अथवा सर्वदेश से प्रत्येक अवयवों की वृत्ति नहीं है कि जिससे बौद्ध सर्वथा भेद पक्ष के समान हम जैनों के द्वारा स्वीकृत अवयव, अवयवी आदिकों का कथंचित् तादात्म्य होने पर भी उनमें वृत्ति को दूषित कर सके अर्थात् हमारे यहाँ कथमपि दूषण का अवकाश नहीं है । 1 स्याद्वादी वदति वेद्यवेदकाकारयोर्ज्ञानमेकदेशेन समवेतं सर्वात्मना वा समवेतं कथञ्चित्तादात्म्याभ्युपगम्यत इति विकल्पस्त्वया वैशेषिकेण किं संभाव्यतेऽपितु न तथा विज्ञानस्य भागवत्वमनेकत्वञ्च किं सम्भाव्यतेऽपितु न । दि० प्र० । 2 का । ब्या० प्र० । 3 सतोः । दि० प्र० । 4 ततश्च । दि० प्र० । 5 सर्वात्मना वेति विकल्पयोरविज्ञान | इति० पा० । दि० प्र० । 6 तथा च । इति पा० । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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