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________________ भेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २७३ संयोगिभ्यां संयोगोर्थान्तरभूतः समवायवृत्त्या तयोरिति व्यपदिश्येत ? स एव च स्थाल्यां दध्नो वृत्तिरिति न तेनानकान्तिको हेतुः स्यात् । तत एव न विरुद्धः, सर्वथार्थान्तरभूतस्य क्वचिद्वत्त्युपलब्धेरभावात् । ततो निरवद्यमिदमनुमानं भेदपक्षस्य बाधकम् । इति तत्र प्रवर्तमानो हेतुः कालात्ययापदिष्ट एव, प्रत्यक्षविरुद्धत्वाच्च' पक्षस्यावयवावयव्यादीनां कथंचित्तादात्म्यस्यैव साक्षात्करणात् । नन्वेवमपि वृत्तेदोषो यथोपवर्णितः स्याद्वादिनां प्रसज्यते अतः बाह्य पदार्थों की व्यवस्था करने की इच्छा करने वाले आप यौग को विशेषण विशेष्यत्व ज्ञान अदृष्टमात्र निमित्तक नहीं मानना चाहिये क्योंकि वह विशेषण विशेष्यत्व प्रत्यय द्रव्यादि प्रत्यय के समान बाह्य पदार्थ विशेष को विषय करने वाला है। अतः आपके द्वारा अवश्य ही आश्रय लेने योग्य है। और इस प्रकार से स्वीकार कर लेने पर तो आपके यहाँ अनवस्था दोष आ जाता है। दोनों संयोगी से संयोग भिन्न है। और समवाय वृत्ति से उन दोनों का है ऐसा व्यपदेश कैसे किया जा सकेगा? जैन-इस उपर्युक्त प्रकार से 'स्थाली में दही का रहना' वह संयोग ही है अतः "तत्र वृत्त्युपलब्धेः" हमारा यह हेतु अनैकांतिक नहीं हो सकेगा, और अनैकांतिक नहीं होने से यह हेतु विरुद्ध भी नहीं है । क्योंकि सर्वथा अर्थान्तरभूत कार्य की किसी कारणांतर तन्तु आदि से वृत्ति उपलब्ध नहीं होती है । इसलिये यह भेद पक्ष का बाधक हमारा अनुमान निर्दोष ही है। और सर्वथा भेद पक्ष में प्रवर्तमान हुआ आपका "भिन्न प्रतिभासत्वात्" हेतु कालात्ययापदिष्ट ही है। आपका भेद पक्ष प्रत्यक्ष से भी विरुद्ध है, क्योंकि अवयव, अवयवी आदि में कथंचित् तादात्म्य ही साक्षात् दिख रहा है। भावार्थ-वैशेषिकों का कहना है कि प्रत्येक द्रव्य, गुण, कर्म, कार्य-कारण, अवयव-अवयवी आदि परस्पर में सर्वथा भिन्न हैं क्योंकि उन सबका भिन्न प्रतिभास हो रहा है। इस पर जैनाचार्यों ने कहा कि इन गुण-गुणी, अवयव-अवयवी, कार्य-कारण, आदि में सर्वथा भेद नहीं है क्योंकि गुणी में गुणों की, अवयवी में अवयवों की वृत्ति उपलब्ध हो रही है अर्थात् ये उनमें ही रहते हुए पाये जा रहे हैं न कि पृथक-पृथक, अग्नि में ही उष्ण गुण है न कि पृथक । तब उसने विशेषण-विशेष्य भाव को समवाय को और संयोग का उस-उस प्रकार के ज्ञान मानना चाहा । तब आचार्य ने कहा कि आप उसउस प्रकार के ज्ञान को ही मान लीजिये समवाय संयोग आदि को मानने की क्या जरूरत है और पुनः विज्ञानवाद में प्रवेश कराना चाहा जब वैशेषिक ने उस विज्ञान मात्र को स्वीकार करने में कुछ आनाकानी दिखाई, तब स्वयं विज्ञानाद्वैतवादी ने बाह्य पदार्थों का अभाव सिद्ध करते हुये इसके 1 समवायसंबन्धेन । ब्या० प्र०। 2 कूत इत्यत्रापि सम्बन्धनीयम् । ब्या० प्र०। 3 न केवलमनुमानविरुद्धत्वाच्च कालात्ययापदिष्ट: । ब्या० प्र० । 4 सर्वत्र सर्वदावृत्तिमनभ्युपगच्छन् सौगतः प्राह नन्वेवमिति । दि०प्र० । 5 किञ्च, ततश्च । दि० प्र० । 6 अत्राह वैशेषिकः हे स्याद्वादिन् यथास्माकं वृत्तः कथञ्चित्तादात्म्यात् । यथावेद्यवेदकाकाराभ्यां ज्ञानस्य कञ्चित्तादात्म्ये वृत्तः दोषो न स्यात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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