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________________ २७२ ] अष्टसहस्री [ च० ५० कारिका २६ ज्ञानजनकानां तद्वासनाप्रबोधकत्वात् तद्वासनानामपि तत्कारणविज्ञानेभ्यः प्रबोधोपगमात् । इत्यनादिरयं । वासनासरित्परिपतितस्तत्प्रबोध प्रत्ययसार्थस्तद्विज्ञान प्रवाहश्च । इति किं बहिरथैः ? कल्पयित्वाप्येतान्विज्ञानानि प्रतिपत्तव्यानि, तैविना तद्वयवहाराप्रसिद्धः । सत्सु च तेषु बहिरर्थाभावेपि स्वप्नादिषु तद्वयवहारप्रतीतेरलं बाह्यार्थाभिनिवेशेन । ततो बहिरर्थ व्यवस्थापयितुमनसा नादृष्टमात्रनिमित्तो विशेषणविशेष्यत्वप्रत्ययोनुमन्तव्यः, तस्य द्रव्यादिप्रत्ययवबहिरर्थविशेषविषयत्वस्यावश्यमाश्रयणीयत्वात् । तथा चानवस्थानात् कुतः उस प्रबोध के अहेतुक हैं। अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायेगा। अर्थात् पिशाच, परमाणु आदि भी वासना प्रबोध के हेतु हो जायेंगे। नीलादि विज्ञान से ही उनकी वासना का प्रबोध होता है और वासना के प्रबोध से ही नीलादि पदार्थों का ज्ञान होता है ऐसा हम स्वीकार नहीं करते हैं कि जिससे आप योग हमें परस्पराश्रय दोष दे सकें अर्थात् हमारे यहां परस्पराश्रय दोष भी नहीं आता है। नीलादि ज्ञान के अधिपति चक्षुरादि निर्विकल्प ज्ञान और समनंतर ज्ञान ही जो कि नीलादि ज्ञान को उत्पन्न करने वाले हैं वे उस वासना के प्रबोध में हेतु हैं और उन वासनाओं में भी तत्कारण विज्ञान-अधिपति समनंतरादि कारण प्राक्तन विज्ञान से प्रबोध स्वीकार किया गया है। इस प्रकार से यह वासना रूपी नदी में पड़ा हुआ अनादि प्रबोध प्रत्यय का समूह है और उस उस वासना प्रबोध का विज्ञान प्रवाह भी उस वासना रूपी नदी में पड़ा हुआ ही है । इसलिये बाह्य पदार्थों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् विज्ञानाद्वैतवादी का कहना है कि सम्पूर्ण जगत ज्ञान मात्र है वह ज्ञान वासना से ही अद्भूत है और वासना को बताने वाला ज्ञान भी वासना से ही प्रगट हुआ है इत्यादि रूप से वह बाह्य पदार्थों का अभाव सिद्ध कर रहा है। फिर भी इन बाह्य पदार्थों की कल्पना करके भी विज्ञान मात्र को ही स्वीकार करना चाहिये क्योंकि विज्ञान के बिना उन बाह्य पदार्थों का व्यवहार ही प्रसिद्ध नहीं हो सकता है। उन विज्ञानों के होने पर बाह्य अर्थ का अभाव होने पर भी स्वप्नादिकों में उस बाह्य पदार्थ का व्यवहार प्रतीति में आता है। इसलिए बाह्य पदार्थों के दुरभिप्राय से बस होवे। 1 वासना प्रबोध विज्ञानम् । दि० प्र०। 2 प्रबुद्धवासना जन्मविज्ञानम् । ब्या० प्र०। 3 कार्यरूपविज्ञानम् । दि० प्र०। 4 किं भवति । किञ्ज । दि० प्र०। 5 अत्राह स्याद्वादी। हे वैशेषिक ! यतो विज्ञानादेव बहिरर्थव्यवस्था घटते ततस्तस्माद्बहिःपदार्थव्यवस्थापयितुकामो न त्वया विशेषणविशष्यप्रत्ययोऽदृष्ट कारणाज्जायत इति न ज्ञातव्यः । कुत: विशेषणविशष्यप्रत्ययः स बहिरर्थविशेषालम्बनमाश्रयति यतः यथा द्रव्यादि प्रत्ययः द्रव्यादिसामान्यालम्बनमाश्रयति । तथेति किमदृष्टमात्रादेव विशेषणविशेष्य प्रत्ययस्तन्तुपटयोः समवायः प्रत्ययः स्थाली“धनोः संयोगप्रत्ययश्च जायत एवमनवस्थानात् व्यवस्थिति स्ति यतः । दि० प्र०। 6 गुणादि । ब्या प्र० । 7 प्रत्ययस्य । दि० प्र०। 8 संयोगिभ्यां मल्लाभ्यां सर्वथा भिन्नसत्संयोगः समवायवृत्या कृत्वा तयोः संयोगिनोरयं सयोग इति व्यपदेशः कुतो न कूतोपि । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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