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भेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ २७१ दृष्टविशेषत्वसिद्धेः, चेतना कर्मेति विज्ञानवादिभिरपि प्रतिपादनात् । तेषां वासनाविशेष एव ह्यदृष्टम् । स च पूर्वविज्ञानविशेषः । इति न विज्ञानमात्राददृष्टमन्यत् स्यात् । ननु च नाप्रबुद्धा वासना' प्रत्ययविशेष प्रसूते सकृत्सर्वप्रत्ययविशेषप्रसङ्गात् । प्रबुद्धा तु तमुपजनयन्ती प्रबोधकहेतूनपेक्षते । ते च बहिर्भूता, एवार्थाः । इति न विज्ञानमात्रं तत्त्वमनुषज्यते इति चेन्न, विज्ञानविशेषादेव वासनाप्रबोधस्य सिद्धेः; तदभावे बहिरर्थस्य सत्तामात्रेण तदहेतुत्वादन्यथातिप्रसङ्गात् । न च नीलादिविज्ञानादेव तद्वासनाप्रबोधस्तत्प्रबोधादेव नीलादिज्ञानमिष्यते, यतः परस्पराश्रयः स्यात्, 'तदधिपतिसमनन्तरादिविज्ञानानामेव' नीलादि
संयोग है इस प्रकार संयोग ज्ञान के उत्पन्न होने का प्रसंग आ जायेगा अर्थात् उस प्रकार के भाग्य विशेष से ही ये तीनों ज्ञान हो जायेंगे। तब विशेषण-विशेष्य भाव, समवाय और संयोग इनको मानने की भी क्या आवश्यकता है।
अथवा सभी ज्ञान-विशेष, भाग्य-विशेष के वशावर्ती ही सिद्ध हो जायेंगे पुनः पदार्थों में भेदप्रभेदों की कल्पना से भी क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? इस प्रकार से तो विज्ञानवाद के मत में ही आप योग का प्रवेश हो जायेगा। क्योंकि विज्ञानाद्वैतवाद में ही भाग्य विशेष की सिद्धि है । अर्थात् विज्ञान ही अदृष्ट है ऐसा विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं। तथा चेतना ही कर्म है। अर्थात् चेतना, विज्ञान और कर्म अर्थात् अदृष्ट ये दोनों एक ही हैं । इस प्रकार से विज्ञानाद्वैतवादियों ने भी प्रतिपादित किया है उन विज्ञानवादियों के यह वासना विशेष ही अदृष्ट है और वह वासना विशेष पूर्व विज्ञान विशेष हैं इसलिये विज्ञान मात्र से भिन्न अदृष्ट नाम की और कोई चीज नहीं है।
यौग-अप्रबुद्ध (अप्रगट) वासना "यह नील है" इत्यादि ज्ञान विशेष को उत्पन्न नहीं करती है अन्यथा एक साथ सभी ज्ञान विशेष उत्पन्न हो जायेंगे। क्योंकि वासना का अप्रबुद्धपना दोनों जगह समान है। यदि आप कहें कि वह वासना प्रबुद्ध है । तब तो वह उस ज्ञान विशेष को उत्पन्न करती हुई प्रबोधक हेतुओं की अपेक्षा रखेगी।
और वे प्रबोधक हेतु बहिर्भूत पदार्थ ही हैं। इसलिये हमारे यहां विज्ञान मात्र तत्त्व का प्रसंग आता है।
सौगत-आपका ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि विज्ञान विशेष से ही वासना के प्रबोध की सिद्धि होती है। उस विज्ञान विशेष के अभाव में बाह्य पदार्थ वासना प्रबोध के प्रति सत्तामात्र से
1 योगेन स्वमतमाशङ्कय निवेदितं सौगतः परिहरति । दि० प्र० । 2 अत्राह बहिस्तत्त्ववादी हे अन्तस्थत्वरूपविज्ञानवादिन् वासना प्रबुद्धा सती ज्ञानविशेषं जनयति अप्रबुद्धा वा। न तावत्स्वकारणैरप्रादुर्भाविता वासना प्रत्ययविशेष सूते । सूते चेत्तदा युगपत् सर्वज्ञानविशेष: संभवति = प्रबुद्धा सतीतं वासना प्रत्यय विशेषं जनयन्ती प्रादुर्भावकारणान्याकांक्षति । दि० प्र० । 3 बहिभूतार्थेभ्यः । दि० प्र० । 4 जनयन्ती। दि० प्र० । 5 प्रबोधहेतवः । दि० प्र०। 6 कुतः । ब्या० प्र० । 7 नीलादिज्ञानस्य । ब्या० प्र०। 8 चक्षुरादि । ब्या० प्र०। 9 समनन्तरादीनि च तानि विज्ञानानि चेति यस:=आलम्बनं । दि० प्र० ।
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