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________________ २६६ ] अष्टसहस्री [ च० ५० कारिका ६२ कार्यकारणयोर्गुणगुणिनोः सामान्यतद्वतोश्चान्यत्वमेकान्तेन यदीष्यते तदैकस्य कार्यद्रव्यादेरनेकस्मिन् कारणादौ' वृत्तिरेषितव्या, तदनिष्टौ कार्यकारणभावादिविरोधादकार्यकारणादिवत् । तदृत्तिश्चाभ्युपगम्यमाना' प्रत्याश्रयमेकदेशेन' सर्वात्मना वा स्यात् ? तत्र एकमनेकत्र वर्तमानं प्रत्यधिकरणं न तावदेकदेशेन, निष्प्रदेशत्वात् । नापि सर्वात्मना, अवयव्यादिबहुत्वप्रसङ्गात् । यावन्तो 'ह्यवयवास्तावन्तोवयविनः स्युस्तस्य' प्रत्येक सर्वात्मना वृत्तत्वात् । यावन्तश्च संयोग्यादयो' गुरिणनस्तावन्तः संयोगादयोनेकस्था12 गुणाः प्रसज्यन्ते । यावन्तः सामान्यवन्तोस्तावन्ति सामान्यानि भवेयुस्तत एव । अथापि कथं यदि यह मान्यता आपको अनिष्ट है तब तो कार्यकारण भावादिकों में विरोध आ जायेगा, जैसे कि अकार्य-कारण अर्थात् जैसे तन्तु और घट में तथा मृत्पिड और वस्त्र में कार्यकारण भाव विरुद्ध है । उसी प्रकार से सर्वत्र पट और तन्तुओं में एवं घट और मृत्पिड़ में भी कार्यकारण भाव नहीं बन सकेंगे। यदि आप उपर्युक्त प्रकार से वृत्ति मान ही लेते हैं तब तो हम जैन आपसे प्रश्न करते हैं कि प्रत्येक आश्रय के प्रति (तन्तु आदि लक्षण आधार, आधार के प्रति) वह वृत्ति एक देश से है या सम्पूर्ण रूप है ? इसमें एक-पटादि कार्य द्रव्य अनेक-अभिकरण तन्तुआदिकों में रहता. हुआ आधार-आधार के प्रति एक देश से तो रह नहीं सकता है क्योंकि एक अवयवी आदि कार्य निष्प्रदेशी है-निरंश है। यदि दूसरा पक्ष लेवें कि एक कार्य अनेक अवववों में सम्पूर्ण रूप से रहता है । यह भी नहीं कह सकते हैं क्योकि अवयवी आदि कार्य बहुत हो जायेंगे। जितने अवयव (तंतु समूह) हैं उतने ही अवयवी (वस्त्र) हो जायेंगे क्योंकि वह एक अवयवी प्रत्येक अवयवों में संपूर्ण रूप से रहता है । अर्थात् जितने तंतु हैं उतने ही वस्त्र हो जायेंगे। जितने संयोगी आदि गुणी हैं उतने ही अनेक अवयवों में स्थित संयोगादि गुण हो जायेंगे। 1 भिन्नत्वम् । ब्या० प्र० । 2 पटादिलक्षणस्य । ब्या० प्र० । 3 तन्त्वादौ । ब्या० प्र० । 4 एवमभ्युपगम्यमाना । ब्या० प्र०। 5 कारणद्रव्यादौ । ब्या० प्र० । 6 एकैकदेशेन । ब्या० प्र० । 7 अवयविनो घटस्य बहुत्वं प्रसजति । दि० प्र०। 8 स्याद्वादी वदति यावन्तः पटापेक्षयावयवास्तन्तबस्तावत्संख्योपेताः अवयविनः घटा भवेयुः । कुतस्तस्यावयविनःस्वकारणेषु प्रत्येकं साकल्येन प्रवृत्तत्वात् = तथा यावन्तौ द्वौ मल्लो द्वो मेधौ वृक्षश्येनौ सयोगिनो तदादयः संयोग्यादयो गुणिनः तावन्तः संयोगादयोः बहुसंयोगिप्रवर्तमाना गुणाः संभवन्ति = तथा यावन्त: सामान्यवन्तोऽर्था गवादयः क्षत्रियादयश्च व्यक्तयः तावन्ति सामान्यानि गोत्वादीनि क्षत्रियत्वादीनि च भवन्ति गोषु गोत्वं क्षत्रियेषु क्षत्रियत्वं सामान्यमिति= यत एवं तत एव योगः येन केनचित्प्रकारेणावयविप्रमुखानां पटादीनां कार्यादिद्रव्याणांकारणवत्वं मन्येत कल्पेत अङ्गीकर्यात । दि० प्र०। 9 अवव्यादेः । दि० प्र० । 10 प्रत्यवयव । दि० प्र० । 11 आश्रयाः । ब्या० प्र० । 12 संयोगो नाम गुण एक एव तव मते । ब्या० प्र०। 13 सर्वात्मना वृत्तित्वादेव । ज्या प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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