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________________ भेद एकांतवाद का खण्डन तृतीय भाग [ २६५ भावश्च'। इति वैशेषिकस्य अवयवगुणसामान्यतद्वतां व्यतिरेकैकान्तमाशङ्कय प्रतिविधत्ते', 'एकस्यानेकवृत्तिन' भागाभावादबहूनि वा' । 'भागित्वाद्वास्य नैकत्वं दोषो' वृत्तेरनार्हते ॥६२॥ ___ अथवा प्रत्येक में अर्थात् उन भेद और तादात्म्य में एक-एक में ही द्वित्व रूप हो जायेंगे, अर्थात् भेद, भेदरूप और अभेदरूप ऐसे दोनों रूप हो जायेगा तथा तादात्म्य भी भेदरूप और अभेदरूप दोनों रूप हो जायेगा । पुन: किसी प्रकार की व्यवस्था के न हो सकने से प्रतिपत्ति और अभाव .... नामक दोष आ जायेंगे। अर्थात् वैशेषिक का ऐसा कहना है कि यदि कार्य-कारण आदि में सर्वथा भेद नहीं मानोगे अभेद मानोगे तब तो विरोध, वैयधिकरण्य, संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति, असम्भव और अभाव ये आठों दोष आ जावेंगे । अब आगे कारिका में आचार्यश्री दोषों का निराकरण करते हैं । उत्थानिका-इस प्रकार से वैशेषिक के यहाँ अवयव-अवयवी, गुण-गुणी और सामान्यसामान्यवान में सर्वथा भेद एकांत मात्र माना गया है। अब आचार्यवर्य श्री संमतभद्र स्वामी इस पूर्व पक्ष का खण्डन करते हुये कहते हैं - एक अनेकों में नहिं रहता चूंकि अंश नहिं है उसमें । यदि वा अंश कहो उसमें तब कार्य एक ही बहुत बनें ।। यदि भागित्व कहो तब तो वह एक न एक कहा सकता। अर्हत् मत से भिन्न जनों में वृत्ति दोष यह कहलाता ।।६२॥ कारिकार्थ-एक की अनेक में वृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि उनमें भाग-अंशों का अभाव है अथवा यदि वृत्ति मानोगे तब तो एक को अनेक रूप मानना पड़ेगा तथा यदि एक ही अवयवी के भाग अंश मानोगे तब तो यह एक रूप नहीं कहा जायेगा, इस प्रकार से एक की अनेक वृत्ति मानने पर हे अर्हत् । आपके मत से बाह्य पर मतावलंबियों के यहाँ अनेक दोष आते हैं. ॥६२।। __ यदि आप योग कार्य-कारण में, गुण-गुणी में और सामान्य-तद्वान में एकांत से भेद मानते हो, तब तो एक कार्य द्रव्य अवयवी आदि की अनेक कारणादिकों में वृत्ति स्वीकार करनी पड़ेगी। 1 ततश्च । ब्या० प्र० । 2 प्रत्युत्तरं ददातीत्यभिप्रायः । ब्या० प्र० । 3 आचार्यों दूषयति । दि० प्र० । 4 तहि । दि० प्र० । 5 अवयवादिषु प्रवृत्तिर्न स्यात् । दि० प्र० । 6 कुतो निरंशत्वादित्यार्थः । दि० प्र० । 7 अथवा एकस्यावव्यादेरनेकवृत्तिश्चेतहि । दि० प्र० 8 अथावयवेनासां सत्त्वमाश्रित्यानेकवृत्तिः स्यादिति चेत्तर्हि । दि० प्र० । 9 दुनिवारः स्यात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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