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________________ २६४ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ६१ पक्षस्य बाधेति चेन्न, तद्विरोधात् । तत एव भेदो मा भूदिति चेन्न, भेदस्य' पूर्वसिद्धत्वात् तादात्म्यस्य पूर्वसिद्धरसिद्धः । सिद्धौ वा कार्यकारणादिविरोधात् धर्ममित्वाधिकरणाधेयतादिविरोधात् क्रियाव्यपदेशादिभेदविरोधाच्च तयोर्न तादात्म्यं', भेदतादात्म्यगोयधिकरण्याच्च परस्परविरोधाच्छीतोष्णस्पर्शवत् । तयोरैकाधिकरण्ये संकरव्यतिकरापत्तिः । तदनापत्तौ पक्षद्वयोक्तदोषानुषङ्गः । प्रत्येकं तद्विरूपत्वोपगमे 'वाऽनवस्थानादप्रतिपत्तिर योग- ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि भेद तो पूर्व से ही सिद्ध है । किन्तु तादात्म्य पूर्व प्रसिद्ध नहीं है। अर्थात् कार्य-कारण आदि में भेद तो सभी ने ही मान रखा है अतः वह पूर्व प्रसिद्ध है। अथवा तादात्म्य को भी आप पूर्व सिद्ध मान भी लेवें तो भी कार्य-कारण आदि में विरोध होने से, धर्म-धर्मी में आधार-आधेय आदि का विरोध होने से और क्रिया के व्यपदेश आदि रूप से होने वाले भेद का विरोध होने से इनमें तादात्म्य सिद्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि भेद और तादात्म्य में वैयधिकरण्य होने से शीत-उष्ण से समान परस्पर विरोध है । भावार्थ-कार्य घट और कारण मृत्पिड में अभेद नहीं है इनमें अभेद मानने से विरोध दोष आता है। धर्म और धर्मी में भी परस्पर में भेद सिद्ध है । धर्म आधेय है और धर्मी आधार है इनमें । 'यह धर्म है और यह धर्मी है' यह व्यवस्था नहीं बनेगी। यह क्रिया है, यह क्रिया वान है यह भी नहीं बनेगा । वस्त्र में शीत निवारण क्रिया है, वह क्रिया वस्त्र के लिये कारण भत में अथवा वस्त्र के श्वेत आदि गणों में नहीं है। अभेद पक्ष में यह वस्त्र की क्रिया है इत्यादि से भी विरोध आ जाता है। क्योंकि जहाँ भेद है वहाँ अभेद नहीं रह सकता है और जहां अभेद है वहाँ भेद नहीं रह सकता है। तथा भेद पक्ष में संबंध का अभाव है एव अभेद पक्ष में सर्वथा एकत्व के होने पर कार्यकारण भाव आदि हो ही नहीं सकते हैं। भेद को आधार वस्तु सर्वथा भिन्न है एवं अभेद की आधार वस्तु सर्वथा अभिन्न है अतः भद और अभेद का भिन्न अधिकरण सिद्ध है। यदि आप भेद और तादात्म्य का एकाधिकरण मान लेंगे तब तो संकर और व्यतिकर दोष आ जायेंगे। यदि संकर, व्यतिकर को नहीं मानोगे तो दोनों पक्ष में दिये हुये दोषों का प्रसग आ जायेगा। 1 प्रमाणेन । ब्या० प्र०। 2 विरोधवत् । इति पा० । ब्या० प्र० । 3 व्यपदेशभेदश्च न स्याद्विरोधादिति सम्बन्धः । दि० प्र० । 4 गुणगुणिनोः क्रियातद्वतो: कार्यकारणयोः सामान्य तद्वतोश्च । ब्या० प्र०। 5 योगो वदति हे स्याद्वादिन ! तयोः कार्यकारणयोः गुणगुणिनोस्तादात्म्यं न कुतो भेदतादात्म्ययोः भिन्नाधिकरणत्वात् । पुनः कुतः यत्र भेदस्तत्र तादात्म्यं न यत्र तादात्म्यं तत्र भेदो नेति परस्परविरोधात् यथा शीतोष्णस्पर्शयोः भिन्नत्वं वैयधिकरण्यं परस्परविरोधश्च संभवति =अथवा भेदतादात्म्ययोरेकाधारत्वे सङ्करव्यतिकरदोषौ प्रतिपद्यते । तयोः सङ्कव्यतिकरयोरसंभवे भेदपक्षाङ्गीकारे सति भेदपक्षोक्त दोषः। अभेदपक्षाङ्गीकारेऽभेदपक्षोक्तदोषः प्रसजति । दि० प्र०। 6 भेदाभेदपक्षे जैनोक्तदोषः । भेदपक्षे संबन्धाभावोऽभेदपक्षे सर्वथैकत्वम् । ब्या० प्र० । 7 वाऽनवस्था तदप्रतिपत्तिः । इति पा० । दि० प्र०। 8 तत्त्वस्य । ब्या०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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