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________________ भेद एकांतवाद का निराकरण ] तृतीय भाग [ २६३ कार्यकारणयोर्गुण गुणिनोः सामान्यतहतोस्तादात्म्यमभिन्नदेशत्वात् । ययोरतादात्म्यं न तयोरभिन्नदेशत्वम् । यथा सह्यविन्ध्ययोः । अभिन्नदेशत्वं च प्रकृतयोः । तस्मात्तादात्म्यम् । इत्यनुमानेन पक्षस्य बाधेति चेन्न', शास्त्रीयदेशाभेदस्यासिद्धत्वात्, कार्यस्य स्वकारणदेशत्वात् कारणस्यापि स्वान्यकारणदेशत्वात् । एतेन गुणगुणिनोः सामान्यतहतोश्च देशभेदस्य प्रतिपादनात् लौकिकदेशाभेदस्य तु व्योमात्मादिभिर्व्यभिचारादस्यानुमानस्यासमीचीनत्वात् प्रकृतपक्षबाधकत्वासंभवात् । कथंचित्तादात्म्यस्य प्रत्यक्षतः प्रतीतेः सर्वथा भेद का अभाव है । यह कालात्ययापदिष्ट भी नहीं है । क्योंकि हमारा पक्ष प्रत्यक्ष एवं आगम से बाधित भी नहीं है। जैन-"कार्य-कारण में, गुण-गुणी में एवं सामान्य और सामान्यवान् में तादात्म्य है क्योंकि इनका अभिन्न देश है। जिसमें तादात्म्य नहीं है अर्थात् सर्वथा भेद है, उनमें अभिन्नदेशता भी नहीं है । जैसे सह्याचल और विंध्याचल। और प्रकृत में आये हुये कार्य कारण आदि में अभिन्नदेशता है । इसलिये इन में तादात्म्य है । इस अनुमान से आपका भेदपक्ष बाधित हो जाता है। योग–ऐसा नहीं कहना, क्योंकि शास्त्रीय देश अभेद असिद्ध है। अर्थात् भेद दो प्रकार के हैं । शास्त्रीय और लौकिक । यहां शास्त्रीय देशाभेद असिद्ध है। क्योंकि कार्य अपने कारण के देश में है। और कारण भी अपने अन्य कारण के देश में रहता है। अर्थात् वस्त्रादि कार्यों के अपने कारण तन्तु आदि हैं । और तन्तुओं के कारण कासादि हैं। इस प्रकार से शास्त्र को अपेक्षा से सभी में देश भेद ही है । इस कथन से गुण-गुणी और सामान्य सामान्यवान् में शास्त्रीय देशभेद प्रतिपादित किया गया है। और लौकिक देश में अभेद में तो आकाश, आत्मा आदि के साथ व्यभिचार आता है । अर्थात् आकाश, आत्मादिकों में लौकिक देश की अपेक्षा से भिन्न देशत्व का अभाव होने पर भी तादात्म्य नहीं है अतः अभेद को सिद्ध करने वाला अनुमान असमीचीन है। वह प्रकृत- भेद पक्ष को बाधित नहीं कर सकता है। जैन-कार्य-कारण आदिकों में कथंचित् तादाम्य ही प्रत्यक्ष से प्रतीति में आ रहा है। इस लिये आप यौगों का सर्वथा भेद पक्ष बाधित है। योग—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि कथंचित् तादात्म्य से भेद पक्ष में विरोध आता है।' जैन-इसलिये भेद को नहीं मानना चाहिये किन्तु तादात्म्य ही मानना उचित है।' 1 उपनय । दि० प्र० । 2 निगमः । दि० प्र० । 3 ननु चास्यानुमानस्यासमीचीनत्वं न भवेत् कुतः शास्त्रीयदेशाभेदस्य विद्यमानत्वादित्युक्त आह । ब्या० प्र० । 4 कार्यकारणयोर्देशाभेदो न भवेच्चेत् माभूत् गुणगुणिनोभविष्यतीत्युक्त आह। ब्या० प्र०.15 कार्यकारणयोभिन्न देशत्वप्रतिपादनपरेण ग्रन्थेन । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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