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________________ भेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २६७ चित्प्रदेशवत्त्वं मन्येतावयव्यादीनां तत्रापि वृत्तिविकल्पोनवस्था च । तथात्रावयव्यादि सर्व तदेकमेव न स्यादिति' वृत्तेर्दोषोऽनाहते. मते दुर्निवारः। नैकदेशेन वर्तते, नापि, सर्वात्मना । कि तहि ? वर्तते एवेति चायुक्तं, प्रकारान्तराभावात् ।' [वैशेषिकः समवायेनावयविनं स्वावयवेषु मन्यते तस्य निराकरणं । ] ननु च समवाय एव प्रकारान्तरं वर्तते, 'समवैतीति संप्रत्ययात्, तद्व्यतिरेकेण वृत्त्यर्थासंभवादिति चेन्न, तत्रैव विवादात् । एतदेव हि विचार्यते, किमे कदेशेन समवैति किंतु आपने संयोग आदि गुणों को तो एक ही माना है। और जितने सामान्यवान् पदार्थ हैं उतने ही सामान्य हो जायेगे क्योंकि वह एक सामान्य प्रत्येक सामान्यवान् में संपूर्ण रूप से विद्यमान है। यदि आप उन अवयवी आदिकों में कथंचित् प्रदेश वाले भी स्वीकार करोगे तब तो उन अवयवियों में भी वत्ति के विकल्प और अनवस्था दोष आते ही रहेंगे। अर्थात तंतुओं से भिन्न होने पर भी वस्त्रों में अंशों को कल्पना करने पर वहां अपने उन अवयवों में उसका रहना एक देश से है या सर्वदेश से ? इस प्रकार से गुन:-नुनः प्रश्न उठते ही जायेंगे तथा अनवस्था भी आ जावेगी। उसी प्रकार से इन अवयवों में अवयवी आदि (गुण सामान्य) सभी इस प्रकार से एक ही नहीं रहेंगे । अर्थात् अवयवों के अनेक होने से वे अवयवी एक ही नहीं रहेंगे, अनेक हो जायेंगे । इस प्रकार से अनाहत् मत में उपर्युक्त वृत्ति की मान्यता से अनेक दोष दुनिवार हो जाते हैं। योग-हमारे यहां एक अवयवी अपने अवयवों में न एक देश से रहता है, न संपूर्ण रूप से ही रहता है। जैन -तो क्या है ? किंतु वह अवयवी अवयवों में ही रहता है । इस प्रकार का तुम्हारा कहना अयुक्त है क्योंकि एक देश अथवा सर्वदेश इन दोनों विकल्पों को छोड़कर अन्य प्रकार असंभव ही है। [ वैशेषिक समवाय संबंध से एक अवयवी अनेक अवयवों में रहना मानते हैं उसका खण्डन । ] योग- समवाय नाम का एक अन्य प्रकार मौजूद है क्योंकि अवयवादिकों में अवयवी समवेत रूप से रहता है इस संबंध से ज्ञान होता है । कारण कि समवाय को छोड़कर वर्तन-शब्द का रहना, यह अर्थ ही असंभव है। 1 एवम् । दि० प्र० । 2 दुषणम् । दि० प्र० । 3 वैशेषिको वदति हे स्याद्वादिन् अवयव्यादिकार्यादिद्रव्यं स्वावयवा दिकारणादिष्वेकदेशेन न प्रवर्तते नापि सर्वात्मना कथं तहि प्रवर्तत एवेत्युक्ते स्याद्वाद्याह इति चायुक्तं कुत एकदेशेन सर्वात्मना वेति प्रकारद्वयं परिहृत्य तृतीयप्रकाराभावात् । दि० प्र० । 4 पुनराह वैशेषिक: हे स्याद्वादिन् समवाय एव तृतीयप्रकारोस्ति अवयवी पटादिद्रव्यं स्वावयवेषु तन्त्वादिकारणेषु समवैति मिलतीति ज्ञानात्समवायः तद्रहितेनान्यः कृत्यर्थो न संभवति । कोर्थः समवाय एव कृत्यर्थं इति चेत् । स्याद्वादी वदति एवं न । तत्रैव समवाये एकावयोविवादात् । दि० प्र० । 5 कोर्थः कार्यकारणे गुणा सुगुणिनि सामान्यञ्च सामान्यवति वर्तते संबन्धमवाप्नोतीत्यर्थः । ब्या० प्र०। 6 वर्तते समवतीत्येतत् । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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