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( ३३ ) अवरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये बंध के हेतु कहे गये हैं। ये पांचों ही संक्लेश परिणाम कहलाते हैं । संक्लेश के अभाव में सम्यग्दर्शन आदि के निमित्त से विशुद्धि होती है। उन धर्म शुक्ल ध्यान रूप विशुद्धि के द्वारा आत्मा में स्थिरता का होना सम्भव है।
"विवाद को कोटि को प्राप्त काय आदि की क्रियाएं स्वपर में सुख अथवा दुःख हेतुक संक्लेश को कारण हैं या कार्य हैं या स्वभाव हैं, तो वे प्राणियों में अशुभ फलादायी पुद्गलपरमाणुओं के सम्बन्ध में हेतु हैं क्योंकि वे संक्लेश की कारण हैं, जैसे विषभक्षण आदि ।" वैसे ही "विवाद की कोटि को प्राप्त कायादि क्रियाएं स्वपर में सुख या दुःख हेतुक भले ही हों, यदि वे विशुद्धि की कारण है या कार्य हैं या स्वभाव हैं तो वे प्राणियों को शुभफलदायी पुद्गलवर्गणाओं का सम्बन्ध कराने में हेतुक हैं, क्योंकि वे विशुद्धि का अंग हैं, जैसे पथ्य आहार आदि ।"
स्याद्वाद सिद्धि-अब आचार्य सप्त भंगी प्रक्रिया के द्वारा स्याद्वाद को सिद्ध करते हैं - कथंचित् स्वपर में स्थित सुख या दुःख पुण्यास्रव के हेतु हैं, क्योंकि वे विशुद्धि के अंग हैं। कथंचित् स्वपर में स्थित सुख या दुःख पानव के हेतु हैं, क्योंकि वे संक्लेश के अंग स्वरूप हैं ।
कथंचित् स्वपर में स्थित सुख और दुःख पुण्यास्रव और पापास्रव दोनों में हेतु हैं, क्योंकि क्रम से दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् अवक्तव्यरूप हैं, क्योंकि युगपत् दोनों को कह नहीं सकते हैं।
कथंचित् पुण्यास्रव हेतुक और अवक्तव्य रूप हैं, क्योंकि क्रम से विशुद्धि को और एक साथ दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् पापस्रव हेतुक और अवक्तव्य रूप हैं, क्योंकि क्रम से संलेश की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् उभय रूप भौर अवक्तव्य रूप हैं, क्योंकि क्रम से दोनों की और युगपत् दोनों की अपेक्षा है।
यहाँ निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि धर्म ध्यान आदि रूप विशुद्ध परिणामों से किसी को या अपने को दुःख भी हो जाता है जैसे उपवास आदि कराने में या शिष्यों को हित के लिये फटकारने में दुःख भी है फिर भी पुण्यास्रव ही होगा और यदि आर्त रौद्र ध्यान के निमित्त से परिणामों में संक्लेश हो रहा है तो चाहे अपने में, चाहे पर को सुख भी क्यों न हो परन्तु उससे पाप का आस्रव ही होता है। इसलिये परिणामों को विशुद्ध बनाना चाहिये।
इस नवम् परिच्छेद में ६२ से १५ तक ४ कारिकाएं हैं ।
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दशम् परिच्छेद अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष के एकांत का विचार
सांख्य का कहना है कि अज्ञान से ही बंध होता है और ज्ञान से ही मोक्ष होता है । इस पर जैनाचार्य का कहना है कि यदि आप अज्ञान से बंध अवश्यंभावी मानोगे तो ज्ञेयपदार्थ तो अनन्त हैं। पुनः उनको जानने वाला कोई नहीं हो सकेगा और यदि अल्पज्ञान से ही मोक्ष मानो तो बचे हुए अवशिष्ट अज्ञान से मोक्ष हो जावेगा। अथवा सभी प्राणियों में कुछ न कुछ शान सम्भव ही है, अतः सभी जीव मुक्त हो जायेंगे।
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