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________________ ( ३२ ) कोई एकांत से कहता है कि पर जीवों में दुःख उत्पन्न करने से पाप एवं पर में सुख उत्पन्न करने से पूण्य ही होता है। तो आचार्य कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि इस प्रकार की मान्यता से तो अचेतन दध, घी आदि पदार्थ अन्य जीवों को सूख उत्पन्न करते हैं इसलिए उनके पुण्यबन्ध मानना पड़ेगा और विष, कंटक आदि पदार्थ दु ख उत्पन्न करते हैं उनके पाप बन्ध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि चेतन ही बन्ध के योग्य है अचेतन नहीं, तो भी वीतरागी मुनिराज के पर के सुख-दुःख के निमित्त से कर्मों का बन्ध होने लगेगा अर्थात् कोई महामुनि ध्यान में लीन हैं उन्हें देखकर भक्तजन प्रसन्न हो जाते हैं और अज्ञानीजन निन्दा करते हैं उनसे दुःख अनुभव करते हैं । इस तरह ये परजीवों के सुख-दुःख में निमित्त तो हो रहे हैं किन्तु स्वयं वीतरागी हैं इनके भी कर्मबन्ध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि उन मुनिराज का वैसा सुख-दुःख देने का मनो अभिप्राय नहीं है तब तो पर में सुख-दुख करने से ही पुण्य-बंध और पाप-बंध होता है ऐसा आपका एकांत कहाँ रहा ? __इससे विपरीत कोई कहता है कि अपने में दुःख को उत्पन्न करने से पुण्य एवं सुख को उत्पन्न करने से पाप बन्ध ही होता है। इस पर भी आचार्य कहते हैं कि ऐसा एकांत भी श्रेयस्कर नहीं है। देखो! यदि ऐसा ही एकांत मानोगे तो वीतरागी मुनिराज त्रिकाल योग के अनुष्ठान से और उपवास आदि से अपने में दुःख उत्पन्न करते हैं तो इन्हें पुण्य बन्ध हो जावेगा और विद्वान् मुनिजन तत्त्वज्ञान से उत्पन्न संतोष लक्षण सुख को अपने में प्राप्त करते है तो उन्हें पाप का बंध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि आसक्ति नहीं है अतएव ये वीतरागी और विद्वान् मुनिराज पुण्य-पाप से नहीं बन्धते हैं तब तो तुम्हारा एकान्त समाप्त हो जाता है और यदि एकान्त लेते हो तब तो कषाय रहित वीतराग छद्मस्थ महामुनि को भी बंध होने लगेगा, पुनः कदाचित् भी पुण्य-पाप का अभाव न होने से किसी को भी मुक्ति नहीं मिल सकेगी। कोई-कोई लोग एका त से परस्पर निरपेक्ष उपर्युक्त दोनों बातों को मानते हैं, इस पर भी आचार्यश्री का कहना है कि यह उभयकात्म्य भी परस्पर में विरुद्ध होने से ठीक नहीं है। उसी प्रकार से कोई लोग इन पुण्यपाप के बन्ध की व्यवस्था को एकांत से अवाच्य कह देते हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि एकान्त से अवाच्य के मानने पर पुन: उसे 'अवाच्य' इस शब्द से वाच्य कर देने पर तो स्ववचन बाधित दोष आता है अतः यह अवाच्य एकांत पक्ष भी गलत ही है। अब आचार्य इन पुण्य-पाप के विषय में सही मान्यता को स्पष्ट करते हैं विशुद्धि के कारण, कार्य और स्वभाव ये विशुद्धि के अंग कहलाते हैं और संक्लेश के कारण, कार्य तथा स्वभाव संक्लेश के अंग कहे जाते हैं । इस विशुद्धि के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दुःख चाहे निज में हो, चाहे पर में हो अथवा चाहे उभय में हो, वही पुण्याश्रव का हेतु है । उसी प्रकार संक्लेश के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दुःख चाहे अपने में हो, चाहे पर में हो या उभय में हो वही पापानव का हेतु है । प्रश्न-संक्लेश क्या है ? एवं विशुद्धि क्या है ? उत्तर-आर्त और रौद्र ध्यान को संक्लेश कहते हैं। एवं धर्म तथा शुक्ल ध्यान को विशुद्धि कहते हैं । उनमें भी आर्तध्यान के इष्ट वियोगज. अनिष्ट संयोगज, वेदनाजन्य और निदान ऐसे चार भेद ध्यान के भी हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी और परिग्रहानंदी ऐसे चार भेद हैं। तथा मिथ्यादर्शन, १. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ८ सूत्र १। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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