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इसलिये एकांत से पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि मानना गलत है।
कोई-कोई देव और पुरुषार्थ दोनों को मान करके भी दोनों को परस्पर निरपेक्ष मानते हैं, सो भी ठीक नहीं है।
एकांत से अवक्तव्य मानने पर भी स्ववचन विरोध आता है। अतएव स्याद्वाद की पद्धति से वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है
"अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात्" ॥६॥ बिना विचारे अनायास ही जब अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य सिद्ध हो जाते हैं तब उनमें भाग्य की प्रधानता है और जब बुद्धिपूर्वक अनुकूल या प्रतिकूल कार्यों की सिद्धि होती है तब उनमें पुरुषार्थ की प्रधानता है । ये भाग्य और पुरुषार्थ एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाले होने से ही सम्यक् कहलाते हैं अन्यथा परस्पर निरपेक्ष होने से मिथ्या एकांतरूप हो जाते हैं अतः ये दोनों सापेक्ष ही कार्यों की सिद्धि में समर्थ होते हैं ऐसा समझना । सप्तभंगी प्रक्रिया
१. कथंचित् सभी कार्य देवकृत होते हैं क्योंकि अनायास ही सिद्ध हुये हैं । २. कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थकृत होते हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से सिद्ध हुये हैं । ३. कथंचित् सभी कार्य भाग्य और पुरुषार्थ दोनों कृत हैं क्योंकि दोनों की विवक्षा है। ४. कथंचित् सभी कार्य अवक्तव्य हैं क्योंकि इन दोनों को एक साथ कह नहीं सकते हैं । ५. कथंचित् देवकृत और अवक्तव्य हैं क्योंकि कम से दैव की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
६. कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थकृत और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से पुरुषार्थ और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
७. कथंचित् सभी कार्य देव और पुरुषार्थकृत तथा अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से दोनों की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
इस प्रकार स्याद्वाद की अपेक्षा से भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही सापेक्ष होकर कार्य साधक होते हैं अन्यथा नहीं, ऐसा समझना चाहिये।
इस परिच्छेद में ८८ से ६१ तक चार कारिकाएं हैं।
नवम परिच्छेद पुण्य और पाप के एकांत का निराकरण
भाग्य दो प्रकार का है । एक पुण्य और दूसरा पाप । वही प्राणियों के सुख और दुःख का कारण है।
"सवेद्य शुभायुनर्नामगोत्राणि पुण्यं, इतरत्पापं" सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र ये पुण्यरूप हैं और इनसे विपरीत असाताबेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और नीच गोत्र तथा चारों घातिया कर्म ये पापरूप हैं।
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