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________________ २५४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ६० "तिष्ठतीति, पय एव मयाद्य भोक्तव्यमिति व्रतमभ्युपगच्छतो दध्युत्पादेपि पयसः सत्त्वे दधिवर्जनानुपपत्तेः, दध्येव मयाद्य भोक्तव्यमिति व्रतं स्वीकुर्वतः पयस्यपि दध्नः सत्त्वे पयोवर्जनायोगात्, अगोरसं मयाद्य भोक्तव्यमिति व्रतमङ्गीकुर्वतोनुस्यूतप्रत्ययविषयगोरसे दधिपयसोरभावे 'तदुभयवर्जनाघटनात् । प्रतीयते च तत्तव्रतस्य' तत्तद्वर्जनम् । ततस्तत्त्वं त्रयात्मकम् । [ वस्तु त्रयात्मकमेव पुनः अनंतधर्मात्मकं कथं सिद्धयेत् ? ] ___ न चैवमनन्तात्मकत्वं वस्तुनो विरुध्यते, प्रत्येकमुत्पादादीनामनन्तेभ्य उत्पद्यमानविनश्यत्तिष्ठद्भयः कालत्रयापेक्षेभ्योर्थेभ्यो भिद्यमानानां विवक्षितवस्तुनि तत्त्वतोनन्तभेदोपपत्तेः, गोरस रूप दूध और दही इन दोनों के त्याग वाला व्यक्ति दूध और दही दोनों को ही नहीं लेता है अतः दूध रूप से नष्ट होता हुआ, दही रूप से उत्पन्न होता हुआ वही गोरस स्वभाव से मौजूद ही है। "मुझे दूध ही आज लेना है" इस प्रकार से व्रत को करने वाले मनुष्य के दही उत्पन्न होने पर भी उसमें दूध का सत्त्व स्वीकार करने पर तो दही का त्याग बन नहीं सकता है। "मुझे आज दही ही लेना है" इस व्रत को रखने वाले मनुष्य को दूध में भी दही का सत्त्व मान लेने पर दूध का त्याग नहीं बन सकेगा किन्तु त्याग तो देखा हो जाता है । तथैव "मैं आज गोरस ही नहीं लेऊँगा" इस व्रत को स्वीकार करने वाले मनुष्य को अनुस्यूत-अन्वय प्रत्यय के विषयभूत गोरस में दही और दूध का अभाव मानने पर उन दोनों का त्याग घटेगा ही नहीं किन्तु उन-उन व्रत वालों को उन-उन वस्तुओं का त्याग करना प्रतीति में आ रहा है। इसीलिये तत्त्व त्रयात्मक ही है। [वस्तु त्रयात्मक है पुनः अनंतधर्मात्मक कैसे कही जावेगी ?] इस प्रकार से एक वस्तु को त्रयात्मक मान लेने पर उसी वस्तु को अनंतात्मक मानना विरुद्ध है, ऐसा आप नहीं कह सकते हैं। क्योंकि प्रत्येक वस्तु में उत्पादादिकों के उत्पन्न होते हुये, नष्ट होते हुये और स्थित होते हुये रूप तीन काल की अपेक्षा रखने वाले अर्थ अनंत हैं। उन अनंत अर्थों से भेद को 1 तिष्ठति तत्त्वमिति प्रत्याययति । ब्या० प्र०। 2 गोरसतत्त्वम् । दि० प्र०। 3 यत एवं मयाद्य भोक्तव्य मिति व्रतं यस्य सः पयोव्रतः पुमान् । दधि न खादति । कुतः दधिपर्याये पयसः सद्भावाभावात् । तथा दध्येवाद्य मया भोक्तव्यमितिव्रतं यस्य स दधिवत: पुरुषः दुग्धं तन्न क्षयति कुतः पयस्यपि दन: सत्त्वाभावात् । तथा गोरसरहितमन्यद्धोजनं मयाद्य भोज्यमिति व्रतं यस्व सः अगोरसवतो जनः । उभे पयोदधिनी न भुङ्क्ते कस्मादनुस्यूतप्रत्ययविषयगोरसे दधिपयसोद्वयोः सत्त्वसंभवात् एवं यथागोरसतत्त्वं दुग्धात्मना प्रणश्यधिस्थरूपेणोत्पद्यमानं गोरसस्वभावेन तिष्ठत् च सत् श्यात्मक सिद्धम् । तथा चेतनाचेतनात्मकञ्च सर्व तत्त्वमात्मकं सिद्धं ज्ञेयम् । दि० प्र०। 4 नश्यतीति साध्यम् । ब्या०प्र० । 5 गोरसस्वभावेन तिष्ठतीति साध्यम् । ब्या०प्र० । 6 तस्मिस्तस्मिन् क्षीरे दधिन अगोरसे व्रतं प्रवृत्तिर्यस्य । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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