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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ २५५ पररूपव्यावृत्तीनामपि वस्तुस्वभावत्वसाधनात्, तदवस्तुस्वभावत्वे सकलार्थसाकर्यप्रसङ्गात् । तथा तत्त्वस्य त्रयात्मकत्वसाधनेनन्तात्मकत्वसाधने' च नित्यानित्योभयात्मकत्वसाधनमपि प्रकृतं न विरुध्यते, स्थित्यात्मकत्वव्यवस्थापनेन कथंचिन्नित्यत्वस्य विनाशोत्पादात्मकत्वप्रतिष्ठापनेन चानित्यत्वस्य' साधनात् । ततः सूक्तं सर्वं वस्तु स्यान्नित्यमेव, स्यादनित्यमेवेति । एवं स्यादुभयमेव, स्यादवक्तव्यमेव, स्यान्नित्यावक्तव्यमेव, स्यादनित्यावक्तव्यमेव, स्यादुभयावक्तव्यमेवेत्यपि योजनीयम् । यथायोग मेतत्सप्तभङ्गीव्यवस्थापनप्रकियामपि योजयेन्नयप्रमाणापेक्षया' सदायेकत्वादिसप्तभङ्गीप्रक्रियावत् ।। प्राप्त हुये उत्पादादिकों के विवक्षित वस्तु में, वास्तव में अनंत भेद बन जाते हैं। क्योंकि पर रूप से व्यावृत्तियां भी तो वस्तु का ही स्वभाव है। यदि उन व्यावृत्तियों को अवस्तु स्वभाव मानोगे तब तो सकल पदार्थों में संकर दोष का प्रसंग आ जायेगा। भावार्थ-एक घट का उत्पाद है वह पट के उत्पाद से व्यावृत्त-भिन्न है तथा मठ के उत्पाद से व्यावृत्त है, महल के उत्पाद से व्यावृत्त है इत्यादि अनंत पदार्थों के उत्पाद से व्यावृत्त है और ये पर रूप से व्यावृत्तियां भी वस्तु का स्वभाव है अवस्तुरूप नहीं है । घट के उत्पाद में पर रूप से व्यावृत्ति रूप उत्पाद अनंत होने से वे सब उत्पाद घट के हैं अतः अनंत उत्पाद हैं, तथैव नाश और स्थिति भी अनंत पर रूप नाश और स्थिति से व्यावृत्त होने से अनंत ही है। ___ इस प्रकार से तत्व को-वस्तु को त्रयात्मक और अनन्तात्मक रूप सिद्ध कर देने पर एक ही वस्तु में नित्य, अनित्य और उभयात्मक रूप को सिद्ध करना भी प्रवृत्त में विरुद्ध नहीं है। क्योंकि स्थित्यातमक की व्यवस्था से कथंचित् नित्यत्व सिद्ध होता है और विनाशोत्पाद की व्यवस्था से एक ही वस्तु में अनित्यत्व की सिद्धी भी होती है। इसलिये यह बिल्कुल ठीक ही कहा है कि सभी वस्तु कथंचित् नित्य ही हैं, तथा कथंचित् अनित्य ही हैं। एवं कथंचित् उभयात्मक रूप ही हैं, कथंचित् अवक्तव्य ही हैं, कथंचित् नित्यावक्तव्य रूप ही हैं, कथंचित् अनित्यावक्तव्य रूप ही हैं एवं कथंचित् उभयावक्तव्य रूप ही हैं । इस प्रकार से लगा लेना चाहिये । __ यथा योग्य रूप से इस सप्तभंगी प्रक्रिया को भी नय प्रमाण की अपेक्षा से योजित कर लेना चाहिये । जैसे कि पूर्व में सदादि, एकत्वादि में सप्तभंगी की प्रक्रिया को घटित किया है। 1 सति । ब्या०प्र० । 2 अस्मिन् परिच्छेदे प्रारब्धम् । दि० प्र० । 3 कथञ्चित् । दि० प्र०14 यथासंभवम् । ब्या० प्र०। 5 नित्यानित्यसप्तभङ्गी। ब्या० प्र० । 6 नित्यत्वं प्रतिषेध्येनाविनाभावीत्यादिरूपाम् । दि० प्र० । 7 स्यान्नित्यत्वमेव सामान्यापेक्षया स्यादनित्यमेव विशेषापेक्षया इत्यादिनयापेक्षया नित्यत्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाविविशेषणत्वादि अनूमानाख्यं प्रमाणापेक्षया च । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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