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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ २५३ इति पारम्पर्यात्त एव शोकादिहेतवो बहिरङ्गाः। अन्तरङ्गास्तु मोहनीयप्रकृतिविशेषोदया इति, तेषां वासनेति नाममात्रं भिद्यत; नार्थः, स्याद्वादिभिर्भावमोहविशेषाणां वासनास्वभावतोपगमात् । ततः सिद्धं लौकिकानामुत्पादादित्रयात्मकं वस्तु, तत्प्रतीते दसिद्धेः । किंच,
पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिवतः ।
अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥६०॥ 'लोकोत्तरदृष्टान्तेनापि तत्र प्रतीतिनानात्वं विनाशोत्पादस्थितिसाधनं प्रत्याययति', दधिपयोऽगोरसवतानां क्षीरदध्युभयवर्जनात् क्षीरात्मना नश्यद्दध्यात्मनोत्पद्यमानं गोरसस्वभावेन
जैन-तब तो नाश, उत्पाद और अन्वय स्थिति ही वासना के प्रबोधक कारणों से हुए हैं. इसलिए परम्परा से वे ही शोकादि के बहिरंग हेतु हैं तथा अंतरंग हेतु तो मोहनीय कर्म की प्रकृति विशेष का उदय ही है आपने उन दोनों हेतुओं को ही 'वासना' यह नाम रख दिया है। अतः आपके कथन में नाम मात्र ही भेद रहता है, अथ भेद कुछ भी नहीं है । स्याद्वादियों ने तो भावरूप मोहकम विशेष को ही वासना स्वभाव स्वीकार किया है।
इसलिये यह बात लौकिक जनों को सिद्ध हो गई कि वस्तु उत्पादादि त्रयात्मक ही हैं, क्योंकि उन उत्पादिकों को प्रतीति आ रही है । अत: उनमें भेद सिद्ध ही है । उत्थानिका-और दूसरी बात यह है कि
क्षीर पिऊंगा यह व्रत जिसके दही नहीं वह खाता है। दधिव्रत वाला क्षीर न पीता चूंकि क्षीर को त्यागा है। गोरस त्यागी उभय न लेता चूंकि द्रव्य पर दृष्टि धरे ॥
इससे वस्तू तत्त्व त्रयात्मक सह ध्रुव व्यय उत्पाद धरे ।।६०॥ कारिकार्थ-जिसका दूध ही लेने का नियम है वह दधि को नहीं खाता है और जिसको दधि को लेने का नियम है वह दूध नहीं पीता है । और जिसका गोरस का ही त्याग है वह दूध और दही दोनों को ही नहीं खाता है इसलिये तत्त्व भी त्रयात्मक है ॥६०॥
अब लोकोत्तर दृष्टांत के द्वारा भी उनमें प्रतीति के भिन्न-भिन्न रूप विनाश, उत्पाद और स्थिति के साधनों का निश्चय कराते हैं । 'दही को हो ग्रहण करूंगा' इस प्रकार के व्रत वाला दूध को नहीं पीता है । 'दूध को ही पीऊँगा' इस प्रकार के व्रत वाला बही को नहीं ले सकता है तथैव
1 नन्वस्याभिर्योगाचारैनि वासनेत्युच्यते । भवद्भिश्च जैनैर्द्रव्यं वासनेति तत् कथमर्थभेदोऽनयोर्न स्यात् । ज्ञानवासनाया इत्याशङ्कायामाह । ब्या० प्र०। 2 जीवादि । ब्या० प्र० । 3 उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूपम् । दि० प्र० । 4 उत्कृष्ट । ब्या० प्र० । 5 तत्त्वे । ब्या० प्र० । 6 प्रतिपादयत्याचार्यः । ब्या० प्र० ।
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