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________________ २४० ] अप्टसहस्री [ पृ० प० कारिका ५७ तत्र तस्योत्पत्तेः प्रागभावसिद्धेः, यत्र यदा यस्य प्रागभावस्तत्र तदा तस्योत्पत्तिरिति नियमकल्पनाया अपि' तत्र भावात् । स्वोपादानेतरनियमश्च कुतः स्यात् ? प्रागभावनियमादिति चेत्समानसमयजन्मनां स एव कुतः तदुत्पत्तिनियमादिति चेत् सोपि कुतः ? स्वोपादाननियमादिति चेत् स्वोपादानेतरनियमः कुतः स्यात् ? इत्यादि पुनरावर्तते इति चक्रकम् । सव्यविषाणस्योपत्तिरिति प्रत्ययविशेषादुत्पत्तिनियमोपि न श्रेयान्, कारकपक्षस्य विचारयितुमारब्धत्वात् । ज्ञापकपक्षे तु प्रागभावनियमोपि तत्प्रत्ययविशेषादेवेति नोत्पत्त्या 'प्रागभावावगतिः, प्रागभावादप्युत्पत्तिनयिमनिश्चयप्रसक्तेरितरेतराश्रयस्य' दुनिवारत्वात् । ततो नोत्पत्तेः प्रागभावः कार्यस्याभावात्मकस्तस्य भावस्वभावस्यवाबाधितप्रतीतिविषयत्वात् । प्रागभावाभावस्य कार्योत्पादरूपत्वात् । तथा हि । ही कैसे बन सकेगा? यदि आप कहें कि तदुत्पत्ति के नियम से यह प्रागभाव का नियम है तो भी वह तदुत्पत्ति नियम भी कैसे सिद्ध है ? यदि कहें कि अपने उपादान के नियम से उसका नियम है तब तो अपने उपादान और अनुपादान का नियम भी कैसे है ? इत्यादि रूप से पुनः पुनः प्रश्नों की आवत्ति होने से चक्रक का प्रसंग आ जाता है, अर्थात प्रागभाव को तुच्छाभाव रूप मानने से उपर्यक्त चक्रक दोष आ जाते हैं। विवक्षित गाय के मस्तक पर बायें सींग की उत्पत्ति है इस प्रकार के प्रत्यय विशेष से उत्पत्ति का नियम भी श्रेयस्कर नहीं है। क्योंकि कारक पक्ष का विचार करना प्रारम्भ किया है, किन्तु ज्ञापक पक्ष में तो प्रागभाव का नियम भी उस प्रागभाव के ज्ञान विशेष से ही होता है। इसलिये उत्पत्ति के द्वारा प्रागभाव का ज्ञान ही नहीं होता है। अन्यथा यदि उत्पत्ति से भी प्रागभाव का ज्ञान मानेंगे तब तो प्रागभाव से भी उत्पत्ति के नियम का निश्चय हो जाने से इतरेतराश्रय दोष दुनिवार हो जायेगा। इसलिये उत्पत्ति का प्रागभाव कार्य का अभावात्मक नहीं है, क्योंकि वह भाव स्वभाव ही अबाधित प्रतीति का विषय है। प्रागभाव का अभाव ही कार्य का उत्पाद रूप है अर्थात् घट का प्रागभाव मृत्पिड है और उस मत्पिड का अभाव ही घट रूप कार्य का उत्पाद है। 1 प्रागभावे । दि० प्र०। 2 अभावस्य भावान्तरस्वभावत्वासंभवाविशेषात् । दि० प्र०। 3 ज्ञानम् । ब्या० प्र० । 4 निश्चितो न भवति कारकपक्षम् । ब्या० प्र०। 5 अत्राह स्याद्वादी हे सौगत ज्ञापकपक्षे प्रागभावनियमः कुतः पराह । तस्य सव्यविषाणस्योत्पत्तिरित्तस्य ज्ञानविशेषादेवेति स्याद्वाद्याह । तहि उत्पत्तेः सकाशात्प्रागभावो नोत्पद्यते । तथा प्रागभावादपि उत्पत्तिनियमज्ञानं प्रसजति । ततः परस्परदोषो दुन्निवारः स्यात् सौगतस्य । । दि० प्र०। 6 कार्यम् । दि० प्र० । 7 उत्पत्तिनियमात् प्रागभावावगति । ब्या० प्र०। 8 यत एवं ततः कार्यस्य घटादेः उत्पत्ते आत्मलाभात्पूर्व कार्यस्याभावः प्रागभावः । सत्त्वाभावस्वरूपो न । कुतस्तस्य प्रागभावस्य वस्तुस्वभावस्यैव प्रमाणोपपन्नप्रतीतिगोचरत्वात । दि० प्र०। 9 मत्तिण्डात्मकः। दि० प्र०। 10 यथास्ति तथा दर्शयति । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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