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अनेकांत की सिद्धि । तृतीय भाग
[ २३६ त्वादिसामान्येनाविशिष्टघटोपादानमृदादिसामान्येन' वा प्राक्सतोतिशयान्तरोपलब्धिर्येन तन्त्वादेरपि घटपरिणतिप्रसङ्गः। नापि घटविनाशोत्तरकालमप्यसाधारणमृदादिसामान्यस्वभावेन सत्त्वाविशेषाद्धटोत्पत्तिः प्रसज्यते, 'तत्प्रागभावात्मकस्य सतस्तद्भावेनोत्पत्तिदर्शनात्, पश्चादभावात्मकस्य सतोपि तददर्शनात् । न चैवं प्रागसत एवोत्पत्तिनियमाद् घटस्य 'कथंचित्प्रागसत्त्वमयुक्तं, प्रागभावस्य भावस्वभावस्य पूर्वं व्यवस्थापनात् । तस्याभावस्वभावत्वे सत्येतरगोविषाणादीनां सहोत्पत्तिनियमवतामुपादानसङ्करप्रसङ्गः, प्रागभावाविशेषात् । ततो यथा स्वोपादानात्सव्यविषाणस्योत्पत्तिस्तथा दक्षिणविषाणोपादानादपि
विनाशोत्तर काल में भी असाधारण मृदादि सामान्य स्वभाव से सत्त्व के समान होने पर भी घटोत्पत्ति का प्रसंग नहीं आता है । उस घट का प्रागभावात्मक मृत रूप से विद्यमान सत् की ही घट रूप से उत्पत्ति देखी जाती है पश्चात्-घट विनाश के उत्तरकाल में अभावात्मक-प्रध्वंसाभावात्मक कपाल रूप से सत भी घट में घट रूप नहीं दिखता है। इस प्रकार से प्राग असत् की ही उत्पत्ति का ही नियम होने से घट का कथंचित प्रागभाव भी अयुक्त नहीं है क्योंकि प्रागभाव भी भावस्वभाव है ऐसा हमने पहले प्रतिपादित कर दिया है।
। प्रागभाव को अभाव स्वरूप स्वीकार करेंगे तब तो सहोत्पत्ति नियम वाले गौ के दायें, बायें सींग आदिकों के उपादान संकर का प्रसंग आ जायेगा अर्थात दायें सींग के स्थान पर बायां सींग उत्पन्न हो जायेगा और बायें सींग के स्थान में दायां सींग उत्पन्न हो जायेगा क्योंकि प्रागभाव दोनों में ही समान है और पुनः जिस प्रकार से अपने उपादान से बायें सींग की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार से दायें सींग के उपादान से भी वहाँ बायें सींग की उत्पत्ति हो जाने से प्रागभाव सिद्ध है।
यदि आप कहें कि जहाँ जब जिस कार्य का प्रागभाव है वहाँ तभी उसकी उत्पत्ति है इस
की नियम कल्पना का भी वहाँ सद्भाव है, अर्थात् फिर भी दायें सींग में बायें की उत्पत्ति हो जायेगी। पूनः अपने उपादान और अनुपादान का नियम भी कैसे हो सकेगा? अर्थात् अभाव को निरूप मानने पर कुछ भी नियम नहीं बनेगा। अगर आप कहें कि प्रागभाव के नियम से उपादान का नियम बन जायेगा तब तो समान समय में जन्म लेने वाले विषाणादिकों में वह प्रागभाव का नियम 1 विशिष्टञ्च तत् घटोपादानञ्च विशिष्टघटोपादानं न विशिष्टघटोपादानमविशिष्ट घटोपादानं तन्मृदादिसामान्यञ्च । ब्या० प्र० । 2 वा शब्दान्नापीतिसंबन्धः कार्यः । दि० प्र०। 3 सत्ताद्रव्यत्वादिरूपेण । ब्या० प्र०। 4 ता। दि० प्र०। 5 उत्पत्तेः । दि० प्र० । 6 कपालकाले। दि० प्र०। 7 कुशूलाकारोपादानरूपत्वम् । दि० प्र०। 8 प्रागभावस्य । दि० प्र० । 9 अत्र योग: सौगतश्च वदतः हे स्याद्वादिन् प्रागभावः सर्वथा अभावात्मकोस्तीत्युक्ते स्याद्वादी वदति । तस्य प्रागभावस्य सर्वथा अभावस्वभावत्वे सति सव्यगोविषाणदक्षिणगोविषाणतिलचणकगोधमादिवीजानां युगपदुत्पत्तिनियमयुक्तानामुपादानसङ्करः प्रसजति । कोर्थः । तिलोपादानं चणकानत्मादयति चणकोपादानं तिलानुत्पादयति । एवमाधुपादान सङ्करः कस्मात्प्रागभावेन कृत्वा विशेषाभावात् । यत: एवं ततः यथा स्वकीयोपादान कारणात वामशृङ्गस्योतात्तिः। तथादक्षिणशृङ्गोपादानादपि तत्र प्रागभावे तस्य दक्षिणशृङ्गस्योत्पत्तिर्घटनात । स्याद्वादिनां प्रागभावः सिद्धयति । दि० प्र० ।
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