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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ २२५ चासत एव 'पूर्वपर्यायाविशिष्टस्योत्तरपरिणामविशेषात्मनोत्पद्यमानस्य प्रतीतिः परीक्षकेतरजनसाक्षिका, स्वसत्समये कार्यकरणं सव्यगोविषाणस्येतरविषाणकरणवन्निरस्यमानं, स्वासत्समये च मृतस्य शिखिन: केकायितकरणवदपाक्रियमाणं स्वयमेव व्यवस्थापयति । इति किं नश्चिन्तया, विरोधादिदूषणस्यापि तयैवापसारितत्वात् । सोयमात्मादीनां स्वसत्समये एव कर्मादीनां च स्वासत्समये एव ज्ञानसंयोगादिकारणत्वमनुमन्यमानस्तथा संप्रत्ययादेकस्य स्वसदसत्समये एवैककार्यकरणं' विरोधादिभिरभिद्रवतीति कथं संप्रत्ययोपाध्यायः' ? सम्यक्प्रतीयमानेपि विरोधमनुरुध्यमानः क्व पुनरविरोधं बुध्येत ? द्रव्यपर्याययोरभेदैकान्त अतः असत् को कार्य करने का जो निराकरण है वह स्वयेव कथंचित् क्षणिक की व्यवस्था कर देता है। अर्थात् कथंचित् क्षणिक में अपने सत् समय में एवं असत् समय में कार्य होता है। सर्वथा क्षणिक में नहीं । वह इस प्रकार की व्यवस्था कर देता है। इसलिये आप लोगों को हम जैनियों की चिन्ता से क्या प्रयोजन है क्योंकि विरोध आदि दूषण भी उसी प्रतीति के द्वारा ही अपसारित (दूर) कर दिये गये हैं। आत्मादि अपने सत् समय में ही और कर्मादि अपने असत् समय में ही ज्ञान संयोगादि के कारण हैं। इस प्रकार से स्वीकार करता है। किन्तु उसी प्रकार के संप्रत्यय सभ्यग्ज्ञान से एक सुर्णाद्रि दव्य का अपने सत्, असत् समय में ही एक कार्य करने का विरोध आदि के द्वारा निराकरण करता है। इस हेतु से वह दुराग्रही सम्यग्ज्ञान का उपाध्याय-जानने वाला कैसे कहा जा सकता है ? सत्, असत् समय में कार्यकारीरूप से द्रव्य की सम्यक प्रकार से प्रतीति के भी एक जगह यगपत दोनों के विरोध को अनरोध करता हआ पूनः वह किस वस्तु में अविरोध को समझेगा ? जो कि अनुभव में नहीं आ रही है। ऐसी द्रव्य और पर्याय में एकांत से अभेद की प्रतीति को अपने सिद्धान्त के अनुराग मात्र से ही जो अविरुद्ध विषयक कहता है उस नैयायिक या सांख्य के इस कथन में बड़े दुराग्रह के सिवाय और क्या कारण हो सकता है ? अर्थात् इस प्रकार के कथन में बहुत बड़ा दुराग्रह ही कारण है । अन्य कुछ नहीं है। इस तरह सर्वथा क्षणिक पक्ष में बाधा आ जाती है। अतएव कथंचित् क्षणिकत्व को सिद्ध करने में प्रत्यभिज्ञान प्रसिद्ध है, जो कि अनुमान से विरुद्ध नहीं है। वह प्रत्यक्ष से भी विरुद्ध नही है । सभी को इदानींतनरूप से प्रत्यक्ष के द्वारा अनुभव में आ रहा है। उस प्रत्यक्ष के द्वारा उसका अतीत अनागत रूप से अनुभव मान होने पर अनादि अनन्त परिणामात्मक वस्तु के अनुभव का प्रसंग आ जाने से योगोपने की आपत्ति आ जायेगी क्योंकि सांप्रतिक रूप से अनुभव हो क्षणिकत्वानभव रूप है। क्षण 1 पिण्डाद्याकारः । ब्या० प्र०। 2 की । ब्या० प्र०। 3 नैयायिकः । ब्या० प्र०। 4 क्रिया। ब्या० प्र० । 5 स्वसत्समय एवैक । इति पा० । दि० प्र०। 6 कर्म । ब्या० प्र०। 7 विश्वासोपाध्यायः । दि० प्र०। 8 कर्तरि प्रयोगोयं ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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