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________________ २२४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५६ [ सांख्यः सर्वथा नित्यपक्षे एव प्रत्यभिज्ञानं मन्यते किन्तु जैनाचार्याः कथंचित् क्षणिके मन्यते । ] ___ ननु च' सर्वं नित्यं सत्त्वात् क्षणिके स्वसदसत्समयेर्थक्रियानुपपत्तेः सत्त्वविरोधात्, इत्यनुमानात् क्षणिकत्वस्य निराकृतेन प्रत्यभिज्ञानं तत्साधकं, 'प्रधानलक्षणविषयाविच्छेदसद्भावात् कालभेदासिद्धेर्बुद्धयसंचरणदोषानवकाशाबुद्धेरेकत्वगमनस्य' संचरणस्य सिद्धेरिति चेन्न, सर्वथा क्षणिकत्वस्यैव बाधनात्, कथंचित्क्षणिकस्य स्वसत्समये 'स्वासत्समये चार्थक्रियोपलब्धेः । सुवर्णस्य हि प्रतिविशिष्टस्य सुवर्णद्रव्यतया सत एव, कर्याकारतया [ सांख्य सर्वथा नित्य में प्रत्यभिज्ञान को स्वीकार करता है किंतु जैनाचार्य कथचित् क्षणिक में प्रत्यभिज्ञान को स्वीकार करते हैं। ] सांख्य-"सभी पदार्थ नित्य हैं, क्योंकि सत् रूप हैं, क्षणिक में अपने सत् और असत् समय में अर्थ क्रिया नहीं बन सकती है । अतः क्षणिक में सत्त्व विरोध है । ___ इस अनुमान से क्षणिक मत का खण्डन कर देने पर उस क्षणिक को सिद्ध करने वाला प्रत्यभिज्ञान नहीं है। क्योंकि प्रधान लक्षण विषय का अविच्छिन्न रूप से सद्भाव है एवं आत्मत्वादि स्वभाव का सर्वदा विच्छेद का अभाव होने से काल से भी भेद नहीं है, अतः बुद्धि असंचरण रूप दोष का अवकाश न होने से 'तदेवेदं' इस प्रकार से बुद्धि का एकत्वगमन-रूप संचरण सिद्ध ही है । अर्थात् सर्वथा नित्य में ही प्रत्यभिज्ञान होता है, क्षणिक में नहीं। जैन-ऐसा आप सांख्यों का मत भी सम्यक नहीं है। क्योंकि सर्वथाक्षणिक में ही बाधा आती है । परन्तु कथंचित् क्षणिक में अपने सत् समय में और अपने असत् समय में दोनों जगह ही अर्थक्रिया की उपलब्धि हो रही है। इसी का स्पष्टीकरण प्रतिविशिष्ट, पिण्डादि आकार रूप, सुवर्णद्रव्य, सुवर्णद्रव्य से सत् रूप ही है। और कटक, कुण्डल आदि कार्याकार रूप से असत् ही है । पूर्व पर्याय विशिष्ट ही सुवर्ण उत्तर परिणाम विशेष रूप से उत्पन्न होते हुये प्रतीति में आ रहा है एवं यह पर्याय रूप से क्षणिकत्व की प्रतीति परीक्षक तथा अपरीक्षक सभी जन साक्षिक हैं। __ अपने सत् समय में अर्थात् क्षणिक क्षण के समय में कार्य का करना दायें गाय के सींग का का बायें सींग को न करने के समान ही असिद्ध है। अतः क्षणिक क्षण के कार्य करने का खण्डन कर दिया है और अपने असत् समय में-सर्वथा क्षणिक में भरे हुए मयूर के केकायित-शब्द बोलने के समान है। 1 सर्वथा नित्यवादी सांख्यः सर्वथा क्षणिकेवादिनं सौगतं प्रत्यनुमान रचयति सर्वं जीवादिवस्तु पक्षः सर्वथा सर्वथा नित्यं भवतीति साध्यो धर्मः सत्त्वात् कस्मात् क्षणिकस्यस्वविद्यमानकाले स्वाविद्यमानकाले वाऽर्थः क्रिया नोत्पद्यते तथा सति क्षणिकत्वे सत्त्वं विरुद्धयते इत्यनुमानात् । दि० प्र०। 2 जीवादि । दि०प्र०। 3 आत्मत्वादिमुख्यलक्षणम् । दि० प्र०। 4 अप्रवेशात् । दि० प्र०। 5 स्वसत्समये त्वसत्समये वा । इति पा० । दि० प्र० । 6 व्यक्तस्य । दि०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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