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________________ क्षणिक एकांत का निराकरण ] तृतीय भाग [ २२३ मदाक्षं तदेव स्पृशामीति पूर्वोत्तरपरिणामयोरेकद्रव्यात्मकत्वेन । गमनासंभवात् ततोन्यस्य बुद्धिसंचरणस्येहा प्रस्तुतत्वात् । तथाविधैकत्ववासनावशाद्बुद्धिसंचरणं न पुनः कथंचिन्नित्यत्वादिति चेन्न; कथंचिन्नित्यत्वाभावे 'संवेदनयोर्वास्यवासकभावायोगात्कार्यकारणभावविरोधात् । ततो बुद्धिसंचरणान्यथानुपपत्तेर्नाकस्मिकं प्रत्यभिज्ञानं विच्छेदाभावाच्च । इति कथंचिन्नित्यं वस्तु' प्रसाधयति । तथा सर्वं जीवादि वस्तु कथंचित् क्षणिकं, प्रत्यभिज्ञानात् । न चैतत् क्षणिकत्वमन्तरेण' भवतीत्यकस्मादुपजायते, तद्विषयस्य कथंचित्क्षणिकस्य विच्छिदऽभावात् । न च तदविच्छिदसिद्धा, कालभेदात् ", कालभेदस्य च पूर्वोतरपर्यायप्रवृत्तिहेतोरसिद्धौ बुद्धयसंचरणदोषात् । न च तदिदमिति स्मरणदर्शनबुध्द्योः संचरणापाये प्रत्यभिज्ञानमुदियात् तस्य " पूर्वापरपर्यायबुद्धिसंचरण निबन्धनत्वात् " । बौद्ध – 'तदेवेदम्' इस प्रकार की एकत्व की वासना के निमित्त से ही बुद्धि का संवरण (व्यापार) होता है । किन्तु कथंचित् नित्य होने से नहीं होता है । जैन - नहीं ! कथंचित् नित्यत्व के अभाव में स्मरण दर्शन रूप दो ज्ञान में वास्य वासक भाव ही असंभव है । पुनः वासना कैसे हो सकेगी क्योंकि उनमें कार्य-कारण भाव का विरोध है अर्थात् दोनों ज्ञान तो वास्य हैं और वासना वासक है । ऐसा वास्य - वासक भाव नहीं है क्योंकि कथंचित् नित्य का भाव मानने पर कार्यकारण भाव भी असंभव है । इसलिये बुद्धि संचरण की प्रत्यभिज्ञान रूप ज्ञान की प्रवृत्ति की अन्यथानुपपत्ति होने से प्रत्यभिज्ञान आकस्मिक भी नहीं है एवं उसमें विच्छेद का भी अभाव है और इसलिये यह प्रत्यभिज्ञान कथंचित् नित्य वस्तु को सिद्ध करता है । उसी प्रकार से सभी जीवादि-वस्तुयें कथंचित् क्षणिक हैं क्योंकि प्रत्यभिज्ञान की विषय हैं एवं यह प्रत्यभिज्ञान क्षणिक के बिना भी संभव नहीं है जिससे कि वह अकस्मात् उत्पन्न हो सके क्योंकि कथंचित् क्षणिक रूप उसके विषय की विच्छित्ति का अभाव है । उसकी अविच्छिन्न परम्परा असिद्ध भी नहीं है क्योंकि काल भेद पाया जाता है । पूर्वोत्तर पर्याय प्रवृत्ति हेतुक काल भेद के न मानने पर "तदेवेदम्" इस ज्ञान के असंचरण-न होने रूप दोष का प्रसंग आ जायेगा एवं "तत्, इदं", इन स्मरण और दर्शन रूप ज्ञान में प्रवृत्ति का अभाव होने पर प्रत्यभिज्ञान भी उदित नहीं हो सकेगा क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञान पूर्वापर पर्याय में ज्ञान की प्रवृत्तिपूर्वक ही होता है । में 1 विषयस्य निरन्वयविनष्टत्वात् । ब्या० प्र० । 2 प्रत्यभिज्ञानं कार्यं वासनाकारणम् । ब्या० प्र० । 3 निरन्वयविनाशादेव | ब्या० प्र० । 4 बाधाभावात् । ब्या० प्र० । 5 जीवादि । व्या० प्र० । 6 प्रत्यभिज्ञानम् । दि० प्र० । 7 पर आह एतत्प्रत्यभिज्ञानमकस्मादुपजायते । कोथं: क्षणिकत्वं बिना भवतीत्युक्ते स्याद्वाद्याद् इति न कस्मात्प्रत्यभिज्ञानविषयस्य कथञ्चित् क्षणिकस्य नैरन्तर्यात् । दि० प्र० । 8 प्रत्यभिज्ञानगोचरस्य । दि० प्र० । 9 क्षणिकम् । दि० प्र० । 10 कालभेदस्यासिद्धत्वपरिहरन्नाह । व्या० प्र० । 11 ताहिः । व्या० प्र० । 12 पूर्वोत्तरपर्याय बुद्धिसञ्चरणं तस्य प्रत्यभिज्ञानस्य निबन्धनं कारणम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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