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________________ २२२ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५६ साधकम् । अतः स्वरूपासिद्धो हेतुरिति कश्चित् सोपि प्रतीत्यपलापी, पूर्वोत्तरविवर्तस्मरणदर्शनाभ्यामुपजनितस्य तदेकत्वसंकलनज्ञानस्य प्रत्यभिज्ञानत्वेन संवेद्यमानस्य सुप्रतीतत्वात् । न' हि स्मरणमेव पूर्वोत्तरविवर्तयोरेकत्वं संकलयितुमलमू । नापि दर्शनमेव । तदुभयसंस्कारजनितं' विकल्पज्ञानं तत् संकलयतीति चेत् तदेव प्रत्यभिज्ञानं सिद्धम् । न च तदकस्मादेवभवतीति निविषयं, बुद्धयसंचरदोषात् । न हि प्रत्यभिज्ञानविषयस्याविच्छिन्नस्य नित्यत्वस्याभाव बुद्धः संचरणं नाम, निरन्वयविनाशाबुद्धयन्तरजननानुपपत्तेः, यदेवाह जैन-इस प्रकार से कहते हुए आप प्रतीति का अपलाप करने वाले ही हैं क्योंकि पूर्व पर्याय का स्मरण एवं उत्तर पर्याय के दर्शन से उत्पन्न हुआ एकत्व परामर्शी-जोड़ रूप ज्ञान पाया जाता है जो कि प्रत्यभिज्ञान रूप से संवेद्यमान है और प्रतीति में आ रहा है। क्योंकि अकेला स्मरण ही पूर्वोत्तर रूप दोनों पर्यायों के एकत्व का संकलन करने में समर्थ नहीं है और न दर्शन ही समर्थ है। बौद्ध-उन दोनों के संस्कार से उत्पन्न हुआ विकल्प ज्ञान उस एकत्व को संकलित कर लेता है। जैन-यदि ऐसा कहो तो वही ज्ञान तो प्रत्यभिज्ञान नाम से सिद्ध है और वह अकस्मात् ही होता है । इसलिये निविषयक है ऐसा भी नहीं कह सकते हैं अन्यथा प्रत्यभिज्ञान रूप बुद्धि के असंचर दोष का प्रसंग आ जायेगा अर्थात् यह प्रत्यभिज्ञान रूप बुद्धि उत्पन्न ही नहीं हो सकेगी। अविच्छिन्न पूर्वोत्तर पर्याय में व्यापी प्रत्यभिज्ञान के विषयभूत नित्य पदार्थ का अभाव होने पर प्रत्यभिज्ञान रूप-बुद्धि का संचरण नहीं हो सकता है क्योंकि क्षणिक विषय का तो निरन्वय विनाश हो जाता है, पुनः बुद्यन्तर की उत्पत्ति ही असम्भव है अर्थात् क्षणिकमत में पूर्व में उत्पन्न हुआ प्रत्येक ज्ञान निरन्वय नष्ट हो जाता है अतएव स्मरण दर्शन में जोड़ ज्ञान रूप प्रत्यभिज्ञान नामक बुद्धि उत्पन्न ही नहीं हो सकती है। उसी का स्पष्टीकरण करते हैं कि-जिसको मैंने देखा है उसी का स्पर्श करता हूँ। इस प्रकार से स्मरण और दर्शन रूप पूर्वोत्तर परिणाम में एक द्रव्यात्मक रूप से गमन-प्रवृत्ति होना असंभव ही है क्योंकि क्षणिक होने से विषय तो निरन्वय नष्ट हो गया है। ___यद्यपि नित्य के आभाव में प्रत्यभिज्ञान लक्षण बुद्धि का संचरण नहीं है फिर भी अन्य बुद्धि का संचरण तो है, ऐसी बौद्ध की आशंका होने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रत्यभिज्ञान से भिन्न अन्य बुद्धि का संचरण भी यहाँ नित्यत्व को सिद्ध करने के इस प्रकरण में अप्रस्तुत ही है अर्थात् भूतकाल का स्मरण और वर्तमान का प्रत्यक्ष इन दोनों के जोड़ करने में प्रत्यभिज्ञान के सिवाय अन्य कोई ज्ञान अपना व्यापार नहीं कर सकता है। 1 केवलं स्मरणं पूर्वोत्तरपर्याययोरेकत्वं कर्तुं समर्थं न तथा दर्शनमपि न । दि० प्र.। 2 सौगत: स्मरणदर्शनज्ञानादिवासनाजनितं विकल्पज्ञानं तत् पूर्वोत्तरपर्याययोरेकत्वं सकलयतीति चेत्स्यात्तदेव प्रत्यभिज्ञानं सिद्धम् । दि० प्र० । 3 वासना । दि० प्र० । 4 तत्प्रत्यभिज्ञानमकारणकं न भवति चेत्तदाबुद्धेः सञ्चरणं न स्यात् =प्रत्यभिज्ञानेन ग्राह्यस्य संतत्या प्रवर्त्तमानस्येकत्वस्याभावे बुद्धेः सञ्चरणं नहि। कस्मान्मूलतो विनाशादन्याधीन जायते यतः । दि० प्र० । 5 बुद्धे रनुत्पादप्रसङ्गात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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