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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ २२१ त्वान्न' प्रत्यभिज्ञानविषयस्यकत्वस्यापहारकं, येन सादृश्यविषयत्वात्तस्य बाधकं सिव्यिद्भ्रान्ततां साधयेत् । [ बौद्धः प्रत्यभिज्ञानं पृथक् प्रमाणं न मन्यते किंतु जैनावार्याः तत्साधयति । ] ननु' चेदं प्रत्यभिज्ञानं नैकं प्रमाणं, तदित्युल्लेखस्य प्रत्ययस्य स्मरणत्वादिदमित्युल्लेखस्य च प्रत्यक्षत्वात् । न चैताभ्यां प्रत्ययविशेषाभ्यामतीतवर्तमानविशेषमात्रगोचराभ्यामन्यत् संवेदनमेकत्वपरामशि समनुभूयते, यत्प्रत्यभिज्ञानं नाम प्रमाणं स्यान्नित्यत्वस्य एवं क्षणिकत्व को सिद्ध करने में यह हेतु विरुद्ध है । अतएव यह हेतु प्रत्यभिज्ञान के विषयभूत एकत्व का अपहारक-विरोधी नहीं हो सकता है कि जिससे सादृश्य को ही विषय करने वाला होने से उस एकत्व प्रत्यभिज्ञान को बाधित करता हुआ उसे भ्रांतरूप सिद्ध कर सके अर्थात् नहीं कर सकता है। भावार्थ-बौद्धों के यहाँ एकत्व प्रत्यभिज्ञान को नहीं माना है कारण कि प्रत्येक वस्तु का वे निरन्वय विनाश मानते हैं । अतः अन्वय रूप एकत्व को वे स्वीकार नहीं करते हैं। उनका कहना है कि दूसरे क्षण में जो हमें अन्वय दिखता है वह सदृशता को लिये हुये है, अतएव वे सादृश्य प्रत्यभिज्ञान ही मानते हैं और "सत्त्वात्" हेतु से उसकी सिद्धि करके एकत्व प्रत्यभिज्ञान को भ्रांत सिद्ध करते हैं, किन्तु जैनाचार्यों ने उनकी मान्यता का खण्डन करके इस सत्त्व हेतु के द्वारा ही एकत्व प्रत्यभिज्ञान को सिद्ध किया है क्योंकि प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य है, तथैव कथंचित् क्षणिक है और यह सत्त्व हेतु कथंचित् नित्यानित्य को ही सिद्ध करता है न कि सर्वथा नित्य या क्षणिक को। [ बौद्ध प्रत्यभिज्ञान को पृथक प्रमाण नहीं मानता है किन्तु जैनाचार्य उसे पृथक प्रमाण सिद्ध करते हैं। ] सौगत-यह प्रत्यभिज्ञान एक प्रमाण नहीं है । क्योंकि "तत्-वह" इस प्रकार का उल्लिखित ज्ञान स्मरण है और "इदं-यह" इस प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष है। इस प्रकार से अतीत एवं वर्तमान विशेष मात्र को विषय करने वाले स्मरण और प्रत्यक्ष प्रत्यय विशेष से भिन्न कोई एकत्व परामर्शी (जोड़ रूप ज्ञान) ज्ञान अनुभव में नहीं आता है जिससे कि आपका प्रत्यभिज्ञान नाम का प्रमाण नियत्व को सिद्ध करने वाला हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है। अतः "प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्" यह हेतु स्वरूपासिद्ध है। 1 सर्वथा नित्यकान्तेऽनित्यकान्तेन । ब्या० प्र०। 2 स्याद्वाद्याह सत्त्वादिति हेतुः सादृश्यगोचरत्वाद्वाधकं सिद्धयत्सत् तस्य प्रत्यभिज्ञानस्य भ्रान्ततां येन केन साधयेत् । । दि० प्र०। 3 आह परः अहो इदं प्रत्यभिज्ञानं एकं प्रमाणं न । तहि कि तदिदमिति । तत् इति प्रकाशो ज्ञानं स्मरणमिदमिति प्रकाशज्ञानं प्रत्यक्षं एताभ्यां ज्ञानविशेषाभ्यामतीतवर्तमानगोचराभ्यां सकाशादन्यत् ज्ञानमेकत्वग्राहकं न सम्यग्ज्ञायते प्रत्यभिज्ञानं नाम प्रमाण नित्यस्यैकत्वस्य ग्राहकं यत् तत् कुतः स्यान्न कुतोपि अत: कारणाञ्जीवादितत्त्वं पक्षः कथञ्चिन्नित्यं भवति, प्रत्यभिज्ञायमानत्वादिति स्वरूपेणासिद्धः, कोर्थः । मूलतो नास्तीति कश्चिद्वदति। अत्राह स्याद्वादी सोप्येवं वक्ता प्रत्यक्षाद्वादकः कुतः पूर्वपर्यायस्मरणोत्तर पर्यायदर्शनाभ्यां जातस्य जीवाद्येकत्वसंयोजनस्य प्रत्यभिज्ञानस्य प्रसिद्धत्वात् । दि० प्र०। 4 का । ब्या० प्र०। 5 यतः । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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