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कोई बाह्य पदार्थवादी कहते हैं कि
जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे सब ज्ञान से सम्बन्धित हैं क्योंकि ज्ञान विषयाकार होता है अतः बाह्य पदार्थ ही वास्तविक हैं ज्ञान स्वतन्त्र कोई चीज नहीं है।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यदि आप सभी पदार्थों को ज्ञान से सम्बन्धित मानेंगे तब तो प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही समाप्त हो जायेगे । तृण के अग्र भाग पर सो हाथी बैठे हैं । इत्यादि ऊटपटांग वाक्यों का ज्ञान एवं स्वप्न का ज्ञान अपने-अपने पदार्थ से सम्बन्धित नहीं है । क्योंकि इन ज्ञानों में विसंवाद देखा जाता है।
इन अंतरंग-ज्ञानतत्त्व और बहिरंग-बाह्य पदार्थ को परस्पर निरपेक्ष मानने वाले उभयकात्म्य वादी का सिद्धान्त भी विरुद्ध ही है। उसी प्रकार से दोनों तत्वों को एकांत से अवाच्य मानना भी अघटित ही है।
स्यावाद की अपेक्षा अंतरंग और बहिरंग दोनों ही तत्त्व वास्तविक हैं। सभी ज्ञान, स्वरूपसंवेदन की अपेक्षा से एवं सत्त्व, प्रमेयत्वादि की अपेक्षा से प्रमाण रूप ही हैं। अतएव अंतःप्रमेय की अपेक्षा से प्रमाणाभास कुछ भी नहीं है किन्तु जब बहिःप्रमेय-बाह्य पदार्थों को प्रमेय करते हैं तब ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं । इसलिये अंतस्तत्त्व और बहिस्तत्त्व दोनों ही सिद्ध हैं । जीव के अस्तित्व की सिद्धि
चार्वाक-जीव अपने स्वरूप से रहित है, वह शरीर इंद्रिय आदि के समूहरूप ही है। जन्म के पूर्व और मरण के अनंतर चैतन्य नामक कोई तत्त्व नहीं है अतः अनादिनिधन कोई आत्मा नहीं है । चैतन्य भी सत् है और भूत चतुष्टय भी सत् है । सत्रूप से दोनों समन्वित हैं अतः जीव भूतचतुष्टय से उत्पन्न होता है किन्तु
तो परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं। उन चारों में एक विकारी समन्वय नहीं है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि और वाय ये चारों तत्त्व भिन्न-भिन्न ही हैं।
जैनाचार्य-यह आपका कथन सर्वथा असत् है । जीव गया, जीव विद्यमान है, इत्यादि रूप से यह जीव शब्द लोक व्यवहार का आश्रय लेता है। यह व्यवहार शरीर इन्द्रिय आदि में नहीं हो सकता है। वैसे ही जन्म से पहले और मरण के अनंतर भी चैतन्य का अस्तित्व सिद्ध है, किसी को जातिस्मरण होता हुआ देखा जाता है, बालक माता का स्तनपान करता है इत्यादि बातें भी संस्कार से मानी जाती हैं। आपने जो भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानी है वह भी सर्वथा गलत है क्योंकि अचेतन से चेतन की उत्पत्ति होना असंभव है तथा ये चारों भूत चतुष्टय परस्पर में सजातीय होने से एक दूसरे रूप भी परिणत हो सकते हैं इसलिये ये सर्वथा भिन्न-भिन्न भी नहीं हैं । चन्द्रकांतमणि रूप पृथ्वीकायिक से जल की उत्पत्ति, सूर्यकांत से अग्नि को उत्पत्ति आदि तथा जल बिन्दु से सीप में मोती की उत्पत्ति भादि देखी जाती हैं अतः अनादिनिधन जीव तत्त्व सिद्ध है वह ज्ञान-दर्शन उपयोग स्वभाव वाला है ।
ऐसे ही सांख्य जीव को कूटस्थ नित्य अपरिणामी ज्ञानशून्य मानते हैं। वे ज्ञान को प्रकृति (जड़) का धर्म मानते हैं । योग जीव को स्व-संवेदन ज्ञान के द्वारा नहीं जानने योग्य-अस्वसंविदित मानते हैं। ब्रह्मवादी कहते हैं कि सभी शरीरों में एक अभिन्न रूप (परमब्रह्म) जीवात्मा है। बौद्ध आत्मा को प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न ही मानते हैं। इन सबके द्वारा जीव शब्द बाह्यार्थ सहित नहीं है क्योंकि यह सब मान्यता केवल कपोलकल्पित
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