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________________ विसदृशकार्योत्पाकसहेतुकवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २११ स्युस्तेषां स्कन्धानां खरविषाणवत् । तदभावे विरूपकार्यारम्भाय हेतुसमागम इति कथन्न सुतरां प्लवते' ? ततो न क्षणिकैकान्तः श्रेयान्नित्यकान्तवत्सर्वथा विचारासहत्वात् । अतः रूपादि स्कन्धों का विनाश नहीं हो सकता है। क्योंकि स्थिति उत्पत्ति वाले पदार्थों में विनाश का व्यवह र सम्भव है, जो है ही नहीं एवं जिनका उत्पाद असंभव है उनके विनाश का प्रश्न ही नहीं हो सकता है और स्थिति, उत्पत्ति एवं विनाश के अभाव में स्कन्ध क्या है ? यही समझना असम्भव है । जब स्कन्ध ही सिद्ध नहीं हुये तब उन स्कन्धों से विसदृश कार्य की उत्पत्ति मानना सर्वथा ही असम्भव है। 1 यत एवं ततः क्षणिकैकान्तपक्षः श्रेयान्न भवतीति साध्यो धर्मः सर्वथा विचारासहत्वात् यथा नित्य कान्तः =अत्राह उभयवादी नित्यकान्त:-क्षणिकैकान्तश्च श्रेयान्मा भवतु । तहि क्षणिका क्षणिक यक्ष: श्रेयान् इत्युक्ते अनुमानद्वारेण स्याद्वादी वदति स्याद्वादन्यायसूत्राणां उभयोकारभ्यं पक्षः श्रेयाम्न भवतीति साध्यो धर्मः युगपदेकत्र क्षणिक नित्ययोः प्रतिषेधात् अत्र पुनरखवायवादी आह । तहि उमौकात्म्यं भा भूत् । सर्वथा अवाच्यं वस्तु भवति । इत्युक्ते स्याद्वाद्याह । हे अवाच्यवादिन् अवाच्यतकान्ते पक्षेऽङ्गीकृते अवाच्यमिति वचनोच्चारो न संभाव्यते घटत इत्यर्थः । दि० प्र० । 2 नित्यवादिभिर्दूषणभयादुभयकात्म्यमङ्गीक्रियत इत्याशङ्खायामाह । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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