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________________ २१२ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५२ बौद्धाभिमत निर्हेतुक नाश एवं विसदृश कार्योत्पाद हेतु के खण्डन का सारांश जैन-आप बौद्धों ने विनाश को अहेतुक माना है पुनः कोई किसी के मारने में हेतु न होने से हिंसक नहीं हो सकेगा तथा आपने निर्वाण को भी अभाव रूप-अर्थात् चित्त संतति के नाश रूप माना है, पुनः उसे सम्यक्त्व, समाधि आदि अष्टांग हेतुक कह दिया है । यह बात परस्पर विरुद्ध बुद्धिहीन ही है। बौद्ध-हमारे यहाँ अन्वय के अभाव में सदृश कार्य नहीं माना है। अतः विसदृश कार्य को प्रारम्भ करने के लिए हिंसक का समागम हिंसा में हेतु है और सम्यक्त्वादि अष्टांग का समागम मोक्ष में हेतु है एवं विनाश तो निःस्वरूप है अतः हेतु का व्यापार प्रध्वंस के लिये नहीं है पूर्वाकार तो स्वभाव से ही निवृत्त हो जाता है। जैन-यह आपका कथन सर्वथा असंगत है क्योंकि घटरूप पूर्वाकार का विनाश और कपालरूप उत्तराकार का उत्पाद इन दोनों में मुदग रूप एक ही हेतु है । यदि नाश एवं उत्पाद भिन्न कारण मानेंगे तो भिन्न कारणवादी नैयायिक के मत में आप प्रवेश कर जायेंगे। किन्तु ये दोनों समसमयवर्ती हैं । "नाशोत्पादौ समयद्धन्नामोन्नामौ तुलांतयोः” । तथा यदि पूर्वाकार की स्वभाव से निवृत्ति मानोगे तो उत्तराकार-कपाल की उत्पत्ति भी स्वभाव से मानो। यदि आप कहें कि समझने वाले के अभिप्रायवश उत्पाद-सहेतुक है किन्तु परमार्थ से दोनों ही अहेतुक हैं, तब तो आप अपने सिद्धान्त से च्युत हो जायेंगे। एवं यह कार्य इसके सदृश है और यह विसदृश है ऐसा भेद भी निरन्वय प्रहाणवादी के यहाँ कैसे हो सकेगा ? अच्छा यह तो बताइये कि आपके यहाँ विसदृश कार्य उत्पन्न होता है तो परमाणु उत्पन्न होते हैं या स्कंध ? __यदि परमाणु कहो तो आपने परमाणुओं को निरंश माना है, निरंश में कार्यकारण भाव विरुद्ध है, पुनः उनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी सम्भव नहीं है, अतः इनकी उत्पत्ति सहेतुक है या अहेतुक ? इत्यादि प्रश्न ही नहीं किये जा सकते। यदि दूसरा पक्ष लेवो तब तो आपके यहाँ रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार ये पांच स्कंध हैं जो कि असंस्कृत हैं क्योंकि वे संवृत्ति रूप हैं । जो संस्कृत है वह परमार्थ सत् है जैसे स्वलक्षण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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