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________________ २१. ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ५४ तस्य च कस्यचिद्वस्तुनोनुप' पत्तेश्च' निरवद्योयं हेतुः । ततो विसभागसंतानोत्पत्तये विनाशहेतुरिति पोप्लूयते, रूपादिस्कन्धसंततेरुत्पत्तिनिषेधात् तद्विनाशस्यापि खरविषाणवदसंभवात् । तथा हि । स्कन्धसंततयो विनाशरहिताः स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात् । यत् पुनर्विनाशसहितं तन्न स्थित्युत्पत्तिरहितं, यथा' स्वलक्षणम् । न तथा स्कन्धसंततयः । इति स्थित्युत्पत्तिव्यया न क्षणिकैकांत भी श्रेयस्कर नहीं है । क्योंकि नित्यकांत के समान ये भी सर्वथा विचार-परीक्षा को सहन करने में असमर्थ हैं। भावार्थ-बौद्धों ने असदृश कार्य की उत्पत्ति के लिये हेतु को स्वीकार किया था । तब आचार्य ने यह प्रश्न किया कि वह कार्य परमाणुओं से होता है या स्कन्धों से ? यदि परमाणुओं से कहो तो ठीक नहीं है क्योंकि आप बौद्धों ने परमाणुओं में यह स्थिति कराने-ठहराने योग्य है और यह ठहराने वाला है यह बात मानी नहीं है, मान लेंगे तो एक क्षण के बाद दो आदि में परमाणु ठहर गये कि आपका क्षणक्षयकांत खतम हो जायेगा। वैसे ही अपने विनष्ट कराने योग्य और विनाश करने वाला भी नहीं माना है क्योंकि ऐसी मान्यता में तो विनाश सहेतुक हो जायेगा । आपने तो “एक क्षण के बाद वस्तु का न ठहराना-नष्ट हो जाना ही स्वभाव है" ऐसा कहा है। उसी प्रकार से आपके यहाँ परमाणु में उत्पाद्य-उत्पादक भी नहीं बनेंगे । जिन्हें कि कार्य कारण भाव कहते हैं अर्थात् उत्पन्न कराने योग्य कार्य और उत्पन्न कराने वाले कारण ऐसे कार्य-कारण भाव भो परमाणु में नहीं बन सकते हैं क्योंकि दो आदि क्षण ठहरे बिना किसी भी वस्तु में कार्य-कारण भाव असंभव है। इसलिये स्थाप्य स्थापक भाव के बिना स्थिति, विनाश्य-विनाशक भाव के किना विनाश और उत्पाद्य-उत्पादक भाव के बिना उत्पाद ये तीनों ही नहीं बन सकते है। क्योंकि परमाणु निरशं हैं। एक क्षण मात्र स्थायी हैं। यदि द्वितीय पक्ष में स्कन्धों से कार्य की उत्पत्ति मानी जावे तो क्या दोष आते हैं इस बात को आचार्य ने इस कारिका द्वारा स्पष्ट किया है कि आपके यहाँ रूप, वेदना आदि पांचों हो स्कंध अवास्तविक हैं-असत्य हैं-काल्पनिक हैं। क्योंकि वे संवृत्ति से माने गये हैं और कल्पना मात्र से कल्पित कोई भी वस्तु कार्य रूप नहीं हो सकती है क्योंकि आपने मात्र स्वलक्षण को ही वास्तविकपारमार्थिक सत्य रूप स्वीकार किया है । जैसे आकाश कमल की स्थिति न होने से उसका विनाश और उत्पाद नहीं हो सकता है। इसी प्रकार से इन स्कन्धों में भी उत्पाद व्यय, ध्रौव्य का होना असम्भव है। 1 ततश्च । व्या०प्र० 1 2 असंस्कृतस्वादित्ययम्। व्या० प्र० । 3 स्थित्युत्पत्तिसहिता । ब्या० प्र०। 4 नश्यति । दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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