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________________ विसदृश कायोत्पादसहेतुकवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ अवास्तविकस्कंधेषु उत्पादादित्रयं न घटते ] ततः स्थित्युत्पत्तिविपत्तिरहिताः प्रतिपाद्यन्ते । तथा हि । स्कन्धसन्ततयः स्थित्युत्पत्तिविपत्ति रहिता एवासंस्कृतत्वात् खरविषाणवत् । क्षणं स्थित्युत्पत्तिविपत्तिसहितस्य स्व'संस्कृतत्वोपगमादन्यथानुपपत्तिसिद्धिः साधनस्य प्रत्येया । स्याद्वादिनामपि स्थित्युत्पत्तिविपत्तिमतः कथंचित् संस्कृतत्वसिद्धेर्न व्यभिचार: 2 | सर्वथा ' स्थितिमतोऽसंस्कृ लक्षणस्य [ २०६ [ अवास्तविक स्कन्धों में उत्पाद, व्यय ध्रौव्य घटित नहीं हो सकते । ] इसलिये ये स्कन्ध संततियां स्थिति, उत्पत्ति और व्यय से रहित हैं ऐसा प्रतिपादन किया जाता है । तथाहि । “स्कन्ध संततियां स्थिति, उत्पत्ति और विपत्ति से रहित ही है क्योंकि वे असंस्कृत हैंअपरमार्थ रूप हैं, खर विषाण के समान ।" स्थिति, उत्पत्ति, विनाश से सहित ही क्षण स्वलक्षण है। और वह संस्कृत कार्य रूप पर स्वीकार किया गया है, इसलिये इस हेतु की अन्यथानुपपत्ति सिद्ध है ऐसा समझना चाहिये । अर्थात् स्थिति, उत्पत्ति और विनाश से रहित के बिना असंस्कृतत्व भी नहीं बनता है । स्वलक्षणादि में कार्यरूपता स्थित्यादि से व्याप्त है किन्तु खर विषाणादि में स्थित्यादि से रहित अकार्यरूपता है मतलब खर विषाणादि स्थिति उत्पत्ति आदि से रहित है । अतः उपर्युक्त अन्यथानुपपति रूप सिद्ध हैं । स्याद्वादियों के यहां भी स्थिति उत्पत्ति-विपत्तिमान् पदार्थ कथंचित् संस्कृत रूप सिद्ध हैं इस लिये व्यभिचार दोष नहीं आता है क्योंकि सर्वथा स्थितिमान् और असंस्कृत कोई वस्तु हो ही नहीं सकती है | अतः "असंस्कृतत्वात्" यह हेतु निर्दोष है । अतः विसदृश संतान की उत्पत्ति के लिये विनाश हेतु माना है यह बात खतम हो जाती है । अर्थात विसदृश कपाल लक्षण कार्य की उत्पत्ति के लिये ही विनाश हेतु मुद्गरादि हैं यह सौगत का वचन नष्ट हो जाता है | रूपादि स्कन्ध संततियों की उत्पत्ति का निषेध है । अतः उनका विनाश भी खर विषाणादि के समान असम्भव है । तथाहि । " स्कन्ध संततियां विनाश रहित हैं, क्योंकि वे स्थिति और उत्पाद से रहित हैं । जो पुनः विनाश सहित हैं वे स्थिति उत्पत्ति रहित नहीं हैं । जैसे स्वलक्षण और स्कन्ध संततियां उसी प्रकार स्थिति, उत्पत्ति सहित नहीं हैं ।" इसलिये उन स्कन्धों में स्थिति, उत्पत्ति और विनाश सम्भव नहीं है । जैसे कि -खर विषाण में ये सम्भव नहीं हैं। पुनः उसस्कन्ध के अभाव में विरूप कार्य-कपाल लक्षण कार्य को उत्पन्न करने के लिये हेतु समागम मुद्गरादि है, इस प्रकार का बौद्धों का वचन सुतरां नष्ट क्यों नहीं हो जाता है ? अर्थात् कथमपि यह वचन ठीक नहीं हो सकता है । इसलिये 1 सर्वथा स्थितिमत्य संस्कृत्वादित्ययं हेतुर्भविष्यतीत्याशंकायामाह । दि० प्र० । 2 नित्यपक्षे सर्वथास्थितिमत् असंस्कृतमुत्पत्तिरहितं किञ्चिद्वस्तु नास्ति । अतः असंस्कृतत्वादिति हेतुनिरवद्यः = यत एवं ततः कार्योत्पत्तये विनाशहेतुरिति यः सौगतो वदेत् । दि० प्र० 3 न केवलं कथञ्चित् संस्कृतत्व सिद्धेनं व्यभिचारः । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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