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निर्हेतुकनाश विसदृशकार्योत्पाद हेतुवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ १६३ चित्तविशेषस्योत्पत्तेरनुपालम्भ' इति चेन्न, संतानस्यावास्तवत्वाद्वास्यवासकभावस्याप्यसंभवादव्यभिचारकार्यकारणभावस्यापि तन्नियमहेतुत्वायोगात् सुगतेतरचित्तसंतानेष्वपि भावादिति निरूपितत्वाच्च क्षणिकैकान्तवादिनाम् ।
बौद्ध-हम क्षणिकवादियों के यहां भी संतान में एकत्व के मानने से पूर्व-पूर्व की वासना से सहित उत्तरोत्तर चित्त विशेष की ही उत्पत्ति होती है अतः हमारे यहाँ भी यह उलाहना ठीक नहीं है।
जैन-आप ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि आपके यहां संतान अवास्तविक है एवं वास्यवासक भाव भी असंभव है । तथा अव्यभिचारी कार्यकारण भाव भी उसके नियम में हेतु नहीं हो सकता है। कारण कि सुगत और सौगत के चित्तक्षणों में भी वह कार्यकारण भाव पाया जाता है अर्थात् सौगत के चित्तक्षणों से सुगत ज्ञान उत्पन्न होता है इस प्रकार से "संतानः समुदायश्च" इस कारिका के व्याख्यान में कह दिया गया है । अतः क्षणिकैकांतवादियों के यहां संतान आदि का अभाव होने से उपर्युक्त दोष आते ही हैं।
1 समन्वितम् । ब्या० प्र०। 2 सन्तानस्यावास्तवत्वेपि वासनावशादयमुपालम्भो न भविष्यतीत्याशङ्कायामाह । व्या० प्र० । 3 दूषणस्य । ब्या० प्र० । 4 निरूपितत्वात् किञ्च क्षणिकैकान्त । इति पा० । दि० प्र० । दूषणान्तरम् । दि० प्र०
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