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________________ १६२ ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ५१ चित्तद्वयादपेतं चित्तं बध्यते । यच्च बद्धं तन्न मुच्यते, ततोन्यस्य' मुक्तेः । इति कोन्यः प्रकाशयेन्निरन्वयात् तस्यैवम् ? संतानादेरयोगादिति—कर्तव्यतासु चिकीविनाशात् कर्तुरचिकीर्षुत्वात् तदुभयविनिर्मुक्तस्य बन्धात्तदविनिर्मुक्तेश्च यमनियमादेरविधेयत्वं, कुर्वतो वा यत्किंचनकारित्वं प्रत्येतव्यम् । न चैवमनेकान्तवादिनः, प्रतिक्षणं परिणामान्यत्वेपि जीवद्रव्यस्यान्वयात् चिकीर्पोरेवेतिकर्तव्यतासु कर्तृत्वात्कर्तुरेव च कर्मबन्धादृद्धस्यैव विनिर्मुक्तेः सर्वथा विरोधाभावात् । क्षणिकवादिनामपि संतानस्यैकत्वात्पूर्वपूर्ववासनोपहितोत्तरोत्तर ___ "संतानादि का अभाव होने से इस प्रकार की नियमरूप कर्त्तव्यता में चिकीर्ष करने की इच्छा वाले का विनाश हो जाता है। तथा कर्ता के करने की इच्छा नहीं रहती है एवं इन दोनों से रहित ही बंधता है और उस बद्ध की मुक्ति न होकर चौथे की होती है। इस प्रकार मान्यता में तो यम, नियम, दीक्षा आदि भी अविधेय- नहीं करने योग्य हो जाते हैं अथवा उनको करते हुये को वे यत्किंचनकारी हो जावेंगे।" भावार्थ-बौद्ध के यहां अन्वयरूप संतान आदि का अभाव होने से क्या दोष आता है आचार्य उसी का स्पष्टीकरण करते हैं कि आपके यहां किसी भी कार्य का नियम नहीं बन सकता है । देखिये जिसने कार्य करने की इच्छा की उस चित्त क्षण का उसी समय निरन्वय-जड़मूल से विनाश हो गया । तथा उत्तर क्षण के चित्त ने कार्य किया वह को बना किन्तु उसके उस कार्य को करने की इच्छा नहीं है। कार्य करने के अभिप्राय से सहित और अभिप्राय से रहित करने वाले इन दोनों से रहित आगे के तृतीय क्षण का चित्त कर्मों से बंधता है एवं बंधे हुये चित्त क्षण से भिन्न हो चतुर्थ क्षण कर्म से छूटता है पुन: आप बौद्धों के यहाँ ही दीक्षा लेना, यम, नियम आदि का अनुष्ठान करना शक्य ही नहीं होगा क्योंकि वे निष्पक्ष ही रहेंगे। जब करने वाले को उसका फल नहीं मिलेगा तब उन क्रियाओं को भला कौन बुद्धिमान करना चाहेगा? अथवा इस प्रकार से करते हुये को वे कुछ भी फल देने वाले हो जावेंगे। किन्तु इस प्रकार के दोष हम अनेकांतवादियों के यहां नहीं आते हैं । हमारे यहाँ प्रतिक्षण परिणाम के भिन्न होने पर भी जीव द्रव्य को अन्वयरूप माना है। करने का इच्छुक नियम से कर्तव्यता में कर्ता है एवं कर्ता के ही कर्मबंध होता है तथा बद्ध की ही मुक्ति हे ती है। इसमें सर्वथा विरोध का अभाव है। 1 ततो बद्धाच्चितादन्यत्तिचित्तस्य मुक्तिर्घटते एवं सति सौगतमते निरन्वयात्कोन्यः प्रकाशेत् । कोर्थः निरन्वय एव प्रकाश्यते । दि० प्र०। 2 सौगतात् । दि० प्र०। 3 क्षणस्य । दि० प्र०। 4 विरोधाभाव : कुतः । ब्या० प्र० । 5 अत्राह सोगतः सौगतानां सन्तानस्य एकत्वमस्ति पूर्वपूर्ववासना संस्कृतोत्तरोत्तरचित्रस्योत्पादनात् । अषणमिति चेन्न कस्मात्सन्तानः अपरमार्थो यतः । वास्यवासकभावोपि सन्तानस्य न संभवति तहि अव्यभिचारी कार्यकारणभावोस्ति तस्यापि न सम्भवः । कस्मात् । अव्यभिचारी कार्यकारणभाव एक सन्तानं न निश्चाययति यतः । पुनः कस्मात् । सुगतसंसारिजनचित्तेष्वपि अव्यभिचारी कार्यकारणभावः संभवति यतः सूगतचित्रस्य इतरजनचित्तानि विषया भवन्ति इतरचित्तानि सुगतस्य ज्ञानमुत्सादयन्ति इति पूर्वमुक्तत्वात् । दि० प्र०। 6 एवमपि कुतोऽनुपालम्भ इत्युक्त आह । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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