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________________ १६४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५१ बौद्धाभिमत अव्यक्तव्य के खण्डन का सारांश बौद्ध-संतान का धर्म एकत्व है और संतानी का धर्म पृथक्त्व है अत: ये एकत्व अन्यत्व धर्म अवाच्य हैं अर्थात सत्त्व एकत्त्व आदि सभी धर्मों में सत्, असत्, अभय, अनुभय रूप चार विकल्प कहे नहीं जा सकते है । तथैव संतान संतानी के भेद, अभेद, उभय एवं अनुभय रूप चार विकल्प अवाच्य क्योंकि प्रश्न उठता है कि वस्तु का धर्म सत् है या असत्, उभय है या अनुभय। यदि सत् मानें तो उसकी उत्पत्ति असंभव है, असत् मानें तो शून्य पक्ष के दोष आ जायेंगे । उभय में उभय पक्षोक्त दोष आयेंगे । एवं अनुभय में उभय धर्म का निषेध होने से वस्तु निविषय-निःस्वरूप हो जायेगी। जैनाचार्य-इस प्रकार से यदि आप तत्त्व को अव्यक्तव्य मानेंगे तो "चतुष्टकोटि" विकल्प अवक्तव्य है। यह भी वाक्य वचन से नहीं कह सकेंगे । पुनः पदार्थ सभी धर्मों से रहित होने से अवस्तु रूप ही हो जायेगा। यदि "अवक्तव्य" इस वाक्य का प्रयोग पर को समझाने के लिये आप करेंगे तो कथंचित् वाच्यता का प्रसंग आ जायेगा । अतः सर्वथा एकांत विकल्पों से रहित जात्यंतर वस्तु ही अनेकांतात्मक है हमने भी कथंचित् वस्तु को अवक्तव्य माना है क्योंकि एक साथ दोनों नय विवक्षित कहे नहीं जा सकते हैं। सर्वथा असत् नाम की चीज "अवाच्य" अथवा "अवस्तु" इन विशेषणों को स्वीकार नहीं कर सकती है भिन्न-पर द्रव्य, क्षेत्र काल भावों के द्वारा सत् वस्तु का ही प्रतिषेध किया जाता है सर्वथा असत् का नहीं क्योंकि असत् में विधि और प्रतिषेध संभव नहीं है। आप बौद्धों ने भी स्वलक्षण को "अनिर्देश्य" और प्रत्यक्ष को 'कल्पनापोढ" कहा है स्वलक्षण अपने असाधारण स्वरूप से अनिर्देश्य है किन्तु "अनिर्देश्य" इस शब्द के द्वारा अनिर्देश्य नहीं है "प्रत्युति अनिर्देश्य' इस शब्द के द्वारा निर्देश्य ही है। तथैव स्याद्वादियों के यहाँ “अभाव और अवाच्य" है इस शब्द से भी कथंचिक भाव और वाच्य का ही कथन है कथंचित् भाव ही पररूप से अभाव कहा जाता है। आपके यहाँ सकल-धर्म से रहित सर्वथा प्रमाण से शून्य निःस्वरूप अवस्तु ही सर्वथा अवाच्य है। किन्तु हमारे यहाँ प्रमाण से प्रसिद्ध वस्तु सर्वथा अवाच्य नहीं है प्रक्रिया के विपर्यय से पर द्रव्यादि की अपेक्षा से वस्तु ही अवस्तु बनती है। अतः कथंचित् अवाच्य कहलाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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