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सप्तभंगी प्रक्रिया
द्रव्य और पर्यायों का पृथक्-पृथक् विवेचन करना अशक्य होने से दोनों में कथंचित् एकत्व है । असाधारण रूप स्वस्वलक्षण के भेद से कथंचित् दोनों में नानापना सिद्ध है । क्रम से दोनों नयों की अर्पणा करने से द्रव्य और पर्यायें कथंचित् एकत्व भिन्नत्वरूप उभयात्मक हैं।
युगपत् दोनों नयों की अर्पणा करने से कहना ही अशक्य है अतः कथंचित् द्रव्य और पर्यायें दोनों अवक्तव्य हैं।
भिन्न-भिन्न लक्षण और एक साय दोनों नयों की अर्पणा करने से कथंचित् नानात्व अवक्तव्य है ।
दोनों का पृथक्-पृथक् अशक्य विवेचन होने से और एक साथ दोनों नयों की अर्पणा करने से द्रव्य पर्यायों में कथंचित् एकत्व अवक्तव्य है ।
क्रम से तथा अक्रम से अर्पित दोनों नयों से द्रव्य पर्याय कथंचित् नाना, एकत्व और अवक्तव्य रूप हैं। इस प्रकार से द्रव्य और पर्यायों में प्रमाण तथा नय से अविरुद्ध सप्तभंगी सुघटित है । इस चतुर्थ परिच्छेद में ६१ से ७२ तक १२ कारिकाएं हैं।
पंचम परिच्छेद
एकांतरूप अपेक्षावाद और अनपेक्षावाद का खंडन
बौद्ध का कहना है कि धर्म और धर्मी परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा से ही सिद्ध होते हैं । जैसे कि मध्यमा और अनामिका अंगुली, अत: ये धर्म धर्मी कल्पित हैं, वास्तविक नहीं हैं क्योंकि ये निर्विकल्प ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होते हैं। ये तो निविकल्प के अनन्तर होने वाले विकल्प ज्ञान से कल्पित किये गये हैं।
योग का कहना है कि धर्म और धर्मी सर्वथा अनापेक्षिक ही हैं-कदाचित् भी एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं।
___इस पर जैनाचार्यों का कथन है कि धर्म और धर्मी का स्वरूप स्वत: सिद्ध है वह स्वरूप तो एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है किन्तु धर्म और धर्मों का अविनाभाव परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा से ही सिद्ध होता है। जैसे कारक के अंग कर्ता और कर्म स्वतः सिद्ध हैं। कर्ता का स्वरूप कर्म की अपेक्षा नहीं रखता है अन्यथा कर्ता के
का अभाव हो जाने से कर्म के स्वरूप का भी अभाव हो जायेगा। अतः कथंचित ये दोनों आपेक्षिक सिद्ध नहीं हैं।
उसा प्रकार योग इन दोनों को सर्वथा अनापेक्षिक ही मानता है सो भी ठीक नहीं है । कता का व्यवहार कर्म के व्यवहार की अपेक्षा अवश्य रखता है क्योंकि कर्म के निश्चय पूर्वक ही कर्ता जाना जाता है। जैसे ज्ञानादि सूण धर्म हैं और जीवधर्मी है ये धर्म और धर्मी अपने-अपने स्वरूप से स्वतः सिद्ध हैं अतः परस्पर आपेक्षिक नहीं हैं। जीव का स्वरूप चैतन्य है और ज्ञान का स्वरूप जानना है । ये अपने-अपने स्वरूप में एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं। किन्तु धर्मी के बिना धर्म अथवा धर्म के बिना धर्मी नहीं रह सकते हैं अतः कथंचित् एक दूसरे की अपेक्षा से भी सिद्ध होते हैं।
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