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चतुर्थ परिच्छेद
भेद एकांत का खंडन
योग कहता है कि कार्य-कारण, गुण-गुणी, अवयव-अवयवी आदि सभी परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं। वह समवाय नाम का एक सम्बन्ध मानता है जिसका अर्थ है "अयुतसिद्ध में सम्बन्ध होना" उस समवाय से ही सबके सम्बन्ध मानता है। जैसे जीव से ज्ञान भिन्न है, वह समवाय से ईश्वर में सम्बन्धित हुआ है। किन्तु जीव में ज्ञान के सम्बन्ध के पहले जीव का तथा ज्ञान का पृथक्-पृथक अस्तित्व दिख नहीं रहा है जैसे दंड के सम्बन्ध के पहले मनुष्य और दंड दोनों अलग-रलग दिख रहे हैं, पीछे उनका सम्बन्ध हो जाने से "दंडी" यह संज्ञा हो जाती है वैसे ही यहाँ गुण-गुणी पृथक् रूप से दिखते नहीं है। कार्य-कारण में भी सर्वथा भिन्नता नहीं है कथंचित् ही है। इनका समवाय भी सिद्ध नहीं होता है। जिसे हम जैन तादात्म्य सम्बन्ध कहते हैं उसे समवाय भले ही कह दो किन्तु अलग से यह कोई समवाय सम्बन्ध सिद्ध नहीं है । अभेद एकांत का खन्डन
सांख्य का कहना है कि महान् अहंकार आदि कार्य हैं और प्रधान कारण है, इन दोनों में परस्पर में एकत्व ही है । आचार्य कहते हैं कि कार्य-कारण में सर्वथा एकत्व मानने से तो दोनों में से कोई एक ही रहेगा और दूसरे का अभाव हो जावेगा । पुनः एक के अभाव में दूसरा भी नहीं रह सकेगा । अतः कार्य-कारण आदि को सर्वथा एकरूप नहीं मानना चाहिये । सर्वथा भेदाभेद एकांत एवं सर्वथा अवक्तव्य का निराकरण
यौग परस्पर निरपेक्ष भिन्नता और अभिन्नता दोनों ही मान लेते हैं । बौद्ध कहता है कि वस्तु सर्वथा अवाच्य ही है। किन्तु जैनाचार्य परस्पर सापेक्ष रूप से तत्त्व को भिन्नाभिन्न-उभयात्मक मानते हैं। और एक साथ दोनों धर्मों को न कह सकने से चतुर्थ भंग रूप से कथंचित् 'अवाच्य' भी मान लेते हैं सर्वथा नहीं। सभी वस्तुयें व्यंजन पर्याय की अपेक्षा वाच्य हैं और अर्थ पर्याय की अपेक्षा से अवाच्य हैं।
अद्वैतवादी का कहना हूं कि द्रव्य एक है वही वास्तविक है, पर्यायें अनेक हैं वे अवास्तविक हैं । द्रष्य उन पर्यायों से भिन्न है।
सौगत का कहना है कि वर्णादिरूप अनेक पयायें हैं वे ही वास्तविक हैं, किन्तु द्रव्य नाम की तो कोई चीज ही नहीं है।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् एकत्व है क्योंकि उन दोनों को पृथक्पृथक् करना अशक्य है।
तथैव द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् भिन्नपना भी है क्योंकि दोनों का लक्षण भिन्न है, प्रयोजन आदि से भी भिन्नता है । द्रव्य का लक्षण सत् है तो पर्याय का लक्षण है उस-उस प्रतिविशिष्ट रूप से होना। सहभावी गुण होते हैं और क्रमभावी पर्यायें होती हैं । द्रव्य अनादि, अनन्त, एक स्वभाव है, पर्यायें सादि, सांत अनेक स्वभाव वाली हैं। फिर भी द्रव्य से निरपेक्ष केवल पर्यायें रह नहीं सकतीं और पर्याय निरपेक्ष द्रव्य का अस्तित्व भी असंभव है। गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन त्रयात्मक ही द्रव्य है।
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