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________________ अवक्तव्यवाद का खण्डन । तृतीय भाग [ १८५ इति वचनप्रवृत्तेः । मृषात्वेन चेत्कथमुक्ताः ? सर्वथा मृषोक्तानामनुक्तसमत्वात् । 'तदलमप्रतिष्ठितमिथ्याविकल्पौधैः, सर्वथानभिलाप्यानां सर्वधर्माणामनभिलाप्या इति वचनेनाप्यभिलाप्यत्वासंभवात्तथा' परप्रत्यायनायोगात् । किंचेदं तत्त्वम्,-- अशक्यत्वादवाच्यं किमभावा त्किमबोधतः । आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ॥५०॥ इसलिये इस कथन में तो केवल वचन स्खलन ही प्रतीत होता है ये धर्म "तत्त्व रूप से वक्तव्य हैं" ऐसा वचन प्रस्तुत होने पर “संवृति से वक्तव्य है" इस प्रकार के वचन की प्रवृति होवेगी। यदि आप "संवृति से" इसका अर्थ 'मृषा रूप से' ऐसा मानें तब तो उनको कैसे कहा ? अर्थात् सभी धर्म हैं और वे अवक्तव्य हैं। इस प्रकार से भी कैसे कहा। क्योंकि सर्वथा असत्य वचन नहीं कहे हुये के समान ही हैं। इसलिये इन अव्यवस्थित मिथ्या विकल्पों के समूह से बस होवे। क्योंकि सर्वथा अवाच्य सभी धर्मों को “ये अवाच्य हैं" इस प्रकार से वचन के द्वारा भी कहना असंभव है। और उसी प्रकार से पर-शिष्यों को समझाना भी असंभव ही है। उत्थानिका-दूसरी बात यह है कि यह तत्त्व अवाच्य क्यों हैं ? कहिये । कहो बौद्ध जी ! तत्त्व आपका "अवक्तव्य" किस विध से है। क्या अशक्ति से या अभाव से या अबोध से नहिं कहते ।। इन तीनों में आदि अन्त के कारण शक्य नहीं दिखते। अतः बहाना करने से क्या साफ कहो कि अभाव है ।।५०।। कारिकार्थ-आप बौद्धों के यहाँ तत्व अवाच्य क्यों है ? क्या अशक्य होने से अवाच्य है या उसका अभाव होने से अवाच्य है अथवा उसका ज्ञान न होने से अवाच्य है ? इनमें से आदि और अन्त रूप दो पक्ष तो बन नहीं सकते। इसलिये बहानेबाजी से क्या ? स्पष्ट कहिये कि तत्त्व का अभाव है ।।५०॥ 1 एषु विकल्पेषु दूषणं यस्मात् । ब्या० प्र० । 2 कथनेन । दि० प्र०। 3 शिष्यप्रबोधनं । ब्या० प्र० । 4 दूषणान्तरम् । दि० प्र०। 5 अर्थस्य । दि० प्र०। 6 भवद्भिर्बोधेरङ्गीक्रियत इति जैनः पच्छति । दि० प्र० । 7 असत्त्वात् । दि० प्र०। 8 स्वकीयाज्ञानात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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