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________________ १८४ ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ४६ प्यानामनभिलाप्यत्वविरोधात् । पररूपेण चेत्तेषां स्वरूपं स्यायेनाभिलाप्याः । केवलं वाचः स्खलनं गम्येत गोत्रस्खलनवत् स्वरूपेणेति वक्तव्ये पररूपेणेति' वचनात्, विशेषरूपवत् सामान्यरूपस्यापि वक्तव्यतयाङ्गीक्रियमाणस्य स्वरूपत्वात्, तस्यास्वरूपत्वे विशेषरूपस्याप्यस्वरूपत्वापत्तेः स्वयं निःस्वरूपत्वप्रसङ्गात् । 'उभयपक्षेप्युभयदोषानुषङ्गः । तत्त्वेन चेत्कथमवक्तव्याः ? केवलं वचःस्खलनं गम्येत, तत्त्वेन वक्तव्या इति वचने प्रस्तुते संवृत्या वक्तव्या यदि दूसरा पक्ष लेवें कि संवृति से अर्थात् पररूप से वे धर्म अवक्तव्य हैं तब तो वह पररूप ही उन धर्मों का स्वरूप हो जायेगा कि जिसके द्वारा वे धर्म वाच्य हो जायेंगे। अतः इस कथन में तो केवल वचनों का स्खलन ही प्रतीत होता है। गोत्र नाम स्खलन के समान । 'स्वरूप से सभी धर्म हैं' ऐसा कहना था किन्तु उसी को 'पर रूप से' ऐसा कह गये। भावार्थ-जैसे कोई मुख से 'पद्मा' कहना चाहता था अकस्मात् "कमला" निकल गया यह गोत्रस्खलन है। तथैव आप उन धर्मों को 'स्वरूप से वक्तव्य हैं' ऐसा कहना चाहते थे और "पर रूप से" ऐसा अकस्मात् मुख से निकल गया है ऐसा ही समझ में आता है। इस पर बौद्ध कहता है स्वरूप विशेष रूप ही है । और पर रूप तो सामान्य रूप ही है पुनः इस प्रकार से विशेष रूप से अवक्तव्य का सदभाव होने से वचनों का स्खलन कैसे माना जा सकता है? क्योंकि सामान्य से वस्त अभिलाप्य है और विशेष परमाणु लक्षण है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं। विशेष रूप के समान सामान्य को भी वक्तव्य रूप से स्वीकार कर लेने पर वह भी स्वरूप ही है अर्थात् जैसे विशेष रूप वस्तु का स्वरूप है वैसे ही सामान्य रूप भी वस्तु का स्वरूप ही है। यदि उस सामान्य को वस्तु का स्वरूप नहीं मानेंगे तब तो विशेष रूप को भी अस्वरूप होने का प्रसंग आ जाने से स्वयं निःस्वरूपत्व का प्रसंग आ जावेगा। अर्थात तब तो सभी धर्मों में स्वरूप, पर रूप दोनों का अभाव होने से वस्तु के निःस्वरूप होने का प्रसंग आ जावेगा। यदि संवृति को उभयरूप मानों तो भी उभय पक्ष में दिये गये दोषों का प्रसंग आ जायेगा। तथा यदि संवृति से मतलब 'तत्त्व रूप से' ऐसा अर्थ कहो तब तो वे धर्म अवक्तव्य कैसे रहेंगे ? 1 स्वरूपेणवक्तव्ये त्यायातं घटे पराभावोऽभावोपि स्वरूपं । ब्या० प्र० । 2 ननु स्वरूपं विशेषरूपमेव पररूपंतु सामान्यरूपमेव ततश्च विशेषरूपेण वक्तव्यसद्भावात् वाचः स्खलनं गम्यते । दि० प्र०। 3 पररूपं लक्षणस्य । ब्या० प्र०। 4 ततश्च सर्वधर्माणां स्वपररूपाभावान्निः स्वरूपत्वमितिभावः । ब्या प्र०। 5 संवत्त्या स्वरूपेण संवत्या पररूपेणेतिपक्षे उभयदोषः प्रसङ्गः=वस्तुनो धर्मः संवृत्त्या तत्त्वेन वक्तव्याश्चेतदा अवक्तव्याः कथं । केवलं वाचः स्खलनमत्रापि जायते तत्त्वेन वक्तव्येति वचने प्रस्तुते प्रारब्ध सति संवृत्त्या वक्तव्येति वचनं प्रवर्तते यतः संवत्या मषात्वेन सर्वे धर्मा वक्तव्ये ति चेत्तदाप्रतिपादिताः कथं भवता कस्मात् सर्वथा असत्योक्ता नामनुक्तसदृशत्वात् । यत एवं तत्तस्मात् विरुद्धमिथ्याविकल्पसमूहै: अलं पूर्यतां कस्मात्सर्वथानभिलाप्यानां सर्वधर्माणामनभिलाप्येति वचनेनाभिलाप्यत्वं न संभवति यतः तथा सति परप्रतिबोधनं न घटते यतः । दि० प्र०। 6 परम् । ब्या० प्र०। 7 वाचः । इति पा० । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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