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________________ अवक्तव्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ १८३ इति तत्त्वतः किं वचनं स्यात् ? पुनरप्यवक्तव्यवादिनं पर्यनुयुज्महे, सर्वे धर्मा यदि वाग्गोचरातीताः कथमिमेऽभिलप्यन्ते ? इति, स्ववचनविरोधानुषङ्गात् सर्वदा मौनव्रतिकोहमिति प्रतिपादयत इव परान् । संवृत्या चेत्सर्वे धर्मा इत्यवक्तव्या इति' चाभिलप्यन्ते भवद्भिर्न, विकल्पानुपपत्तेः। [ संवृतिशब्दस्य कोऽर्थः ? ] संवृत्येति हि स्वरूपेण पररूपेणोभयरूपेण वा तत्त्वेन' मृषात्वेनेति वा विकल्पेषु' नोपपद्यते । तत्र संवृत्वा वक्तव्या इति स्वरूपेण चेत्कथमनभिलाप्याः ? स्वरूपेणाभिला तो स्ववचन विरोध का ही प्रसंग आ जाता है। जैसे "हमेशा मैं मौन व्रत वाला हूँ" इस प्रकार से दूसरों को कहते हुये पुरुष के वचन भी स्ववचन बाधित माने जाते हैं। यदि संवृति से सभी धर्म हैं इसलिये अवक्तव्य हैं इस प्रकार से आपके द्वारा कहा जाता है। तो भी यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि उसमें विकल्प ही नहीं बन सकते हैं। । संवति शब्द का क्या अर्थ है ? ] संवृति से "इस प्रकार कहने से उसका अर्थ क्या है ! पर रूप से है या उभय रूप से है या तत्त्व रूप से है या असत्य रूप से है ? इन पाँच विकल्पों के उठाने पर वह संवृति टिक नहीं सकती है । अर्थात् आप बार-बार हर प्रकरण में संवृति का नाम लेते हैं वह संवृति क्या है ? “संवृति से" इतना मात्र कहने से वह संवृति स्वरूप है या पररूप है या उभय रूप है या वास्तविक है या असत्य रूप है ? इन सभी अर्थों का निराकरण करते हैं। इन पाँच विकल्पों में से यदि आप प्रथम पक्ष लेते हैं कि 'संवृति से वक्तव्य हैं-कहे जाते हैं' ऐसा कहने पर यदि स्वरूप से वक्तव्य हैं ऐसा अर्थ होता है तब तो वे धर्म अवक्तव्य कैसे रहे ? अर्थात् यदि इन धर्मों को हम स्वरूप से कहते हैं तब तो ये धर्म अवाच्य कैसे रहे ? क्योंकि जो स्वरूप से अभिलाप्य-वाच्य है उनमें अवाच्य कहने का विरोध है। 1 यावज्जीवमहं मौनीत्यादिवत् । दि० प्र० । 2 स्याद्वादी वदति हे सौगत भवन्मते वस्तुनः सर्वे धर्माः अवक्तव्येति कि। तदा अवक्तव्येति चाभिलप्यन्ते कथं भयद्भिः सौगतः इत्युक्ते सौगतो वदति हे स्वाद्वादिन् संवृत्या अभिलप्यन्ते इति चेन्न । कस्मात्संवृत्तोऽविकल्पा: नोत्पद्यन्ते यत:-हे सौगतसंवृत्तिः स्वरूपलक्षणा पररूपलक्षणा अभयरूपा तत्त्वरूपा मृपात्वरूपेति विकल्पः । तत्र तेषु संवृत्त्या सर्वे वस्तुनो धर्माभिलाप्येति स्वरूपेण चेत्तदा अनभिलाप्याः कथञ्चित्कस्मात् स्वरूपेण अभिलाप्यानामर्थानामनभिलाप्यत्वं विरुद्धयते। = पूनः संवृत्या पररूपेण वक्तव्येति चेत् तत्सररूपं तेषां धर्माणां स्वरूपं स्यात् येन परस्वरुपेणाभिलाप्याः । एतत्केवलं वाचः स्खलनं गम्यते । किंवत् गोत्रस्खलनवत् । यथा गोत्रस्खलनेन सपत्नीनामग्रहणेन अन्यसपत्नीनामोच्चारणं वा कृतं तथा स्वरूपेण धर्मे वक्तव्ये पररूपेण वक्तव्येति वचनं घटते । पुनर्यथा वस्तुनो विशेषरूपं स्वरूपं वक्तव्यं तथा वक्तव्यतयाङ्गीक्रियमाणस्य सामान्यरूपस्य स्वरूपत्वात् । पुन: कस्माद्वस्तुन. तस्य सामान्यरूपस्यास्वरूपत्वे सति विशेषरूपस्यापि अस्वरूपत्वमायाति । एवं सामान्यविशेषयोद्धयोस्स्वरूपत्वे वस्तुनः स्वयमेव नि.स्वभावत्वं प्रसजति यतः। दि० प्र० । 3. प्रकारेण । दि० प्र०। 4. परमार्थत्वेन । ब्या० प्र०। 5 सत्सु ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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