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________________ [ तृ० १० कारिका ४६ १८२ ] अष्टसहस्री किं च' क्षणिकैकान्तवादिनाम्, *सर्वान्ताश्चेद वक्तव्यास्तेषां कि वचनं पुनः । संवृतिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ॥४६॥ परेषां सर्वे धर्मा यद्यवक्तव्या एव तदा तेषां किं पुनर्वचनं धर्मदेशनारूपं परार्थानुमानलक्षणं साधनदूषणवचनं वा ? न किंचित् स्यादिति मौनमेव शरणम् । यदि पुनः' संवृतिरूपं वचनमुपगम्यते तदापि मृषैव संवृतिरेषाभ्युपगन्तव्या, परमार्थविपर्ययरूपत्वात्तस्याः । उत्थानिका-दूसरी बात यह है कि आप क्षणिकैकांतवादियों के यहाँ यदि सब धर्म अवाच्य रहेंगे पुनः कथन उनका कैसे। धर्म देशना, स्वपर पक्ष साधन दूषण वाणी कैसे ।। यदि वचन संवृतिरूप फिर मिथ्या ही वे सिद्ध हुये । इन परमार्थ विरुद्ध वचन से नहिं सत्यार्थ बोध होवे ।।४६।। कारिकार्थ-यदि सभी धर्म अवक्तव्य ही हैं पुन: आपके यहाँ उनका कथन भी कैसे हो सकेगा? और यदि आप कहें कि उनका कथन संदृति रूप है तब तो परमार्थ से विपरीत होने से यह संवृति तो असत्य ही है ॥४६॥ __ आप सौगतों के यहाँ यदि समस्त धर्म अवक्तव्य ही हैं तब तो उन धर्मों का कथन या आपके धर्म देशना रूप वचन भी कैसे होंगे ? अथवा परार्थानुमान लक्षण अनुमान वाक्य से अपने मत के साधन वचन और परमत दूषण वचन भी कैसे हो सकेंगे ? अर्थात् कुछ भी वचन बोले नहीं जा सकेंगे पुनः मौन का ही शरण लेनी होगी। __ यदि पुनः संवृतिरूप वचन स्वीकार करेंगे तो भी उस संवति को तो असत्य ही स्वीकार करना चाहिये। क्योंकि वह परमार्थ से विपरीत है। इस प्रकार से परमार्थ से क्या वचन होंगे ? अर्थात् कुछ भी नहीं हो सकेंगे। पुनरपि हम आप अवक्तव्य वादी बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि यदि सभी धर्म वचन के अगोचर हैं तब वे "सभी धर्म अवक्तव्य हैं" इन वचनों से भी कैसे कहे जाते हैं ? इस प्रकार से 1 अपरं दूषणम् । दि० प्र० । 2 सौगतानाम् । दि० प्र० । 3 सर्वे वस्तुनोधर्माः । दि० प्र० । 4 बौद्धानां मते । दि० प्र०। 5 बक्तुम शक्याः । दि० प्र०। 6 धर्मदेशनारूपं परमार्थानुमानलक्षणं स्वरपक्षसाधनदूषणवचनं वा । यावज्जीवमहं मौनी, ब्रह्मचारी तु मत्विता । मम माता भवेद् वन्ध्या स्मराभोनुपमो भवानित्यादि प्रतिपादनमपि न किचिदित्यर्थः । दि० प्र० । सत्यार्थाद्विपरीतत्वान्मौनमेव शरणं बौद्धान्यं । दि० प्र० । 8 न किञ्चित् । ब्या० प्र० । 9 परप्रतिबोधार्थमनमानरूपं स्वमतसाधनं परमतदूषणमित्यादिवचनं क्षणिकैकान्तवादिनां किमपि न भवेतस्तेषां मौन मेव, कतु युक्तम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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