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अवक्तव्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ १७६ वाक्यतामुपगतेन वस्तुशून्यत्वाचिना' वस्त्वन्तराभिधानं विरुध्यते । अतः सूक्तं? 'यदवस्तु तदनभिलाप्यं यथा न किंचित् । यत्पुनरभिलाप्यं तद्वस्त्वेव यथा खपुष्पाभावः' इति । नात्र साध्यविकलमुदाहरणं खे पुष्पाभावस्य खस्वरूपत्वात् । सुप्रतीतं हि लोके अन्यस्य कैवल्यमितरस्य वैकल्यं, स्वभावपरभावाभ्यां भावाभावव्यवस्थितेर्भावस्य । [ एकत्रव वस्तुनि भावाभावधर्मी वर्तेते किन्तु केन प्रकारेणेयं मान्यता सुष्ठु ? तस्य स्पष्टीकरणं क्रियते । ]
न हि वस्तुनः सर्वथा भाव एव, स्वरूपेणेव पररूपेणापि भावप्रसङ्गात् । नाप्यभाव एवं, पररूपेणेव स्वरूपेणाप्यभावप्रसङ्गात् । न च स्वरूपेण भाव एव पररूपेणाभावः,
भावार्थ-स्याद्वादियों के द्वारा स्वीकृत अभाव यहाँ पक्ष है वस्तु है यह साध्य है 'अभिलाप्यत्वात्' यह हेतु है, जो अभिलाप्य है वह वस्तु है जैसे खपुष्प का अभाव । इसीलिये यह वस्तु अभिलाप्य है। यहाँ पर अभाव को वस्तु सिद्ध करने के लिये इस अनुमान में आकाश पुष्प का अभाव यह दृष्टांत है। यहाँ पर हमारा उदाहरण साध्य विकल नहीं है । आकाश में पुष्प का अभाव आकाश स्वरूप है यह लोक में प्रतीत ही होता है कि अन्य (आकाश) का केवल रहना ही इतर (पृष्प) की विकलता है। क्योंकि पदार्थ स्वभाव एवं परभाव के द्वारा ही भाव-अभाव रूप से व्यवस्थित हैं। अर्थात आकाश पुष्प का अभाव कहने में वहाँ केवल आकाश विद्यमान है और पुष्प नहीं है। आकाश अपने स्वरूप से मौजूद है पुष्प रूप से नहीं है । अथवा आकाश का पुष्प नहीं है तो भी यह कथन सर्वथा अभाव रूप नहीं है । "खे नास्ति पुष्पं तरूषु प्रसिद्धं" आकाश में पुष्प नहीं है किंतु वृक्षों में मौजूद है । [ एक ही वस्तु में भाव और अभाव दोनों धर्म रहते हैं किंतु किस तरह से उनकी मान्यता उचित है ?
इसका स्पष्टीकरण ] वस्तु सर्वथा भाव स्वरूप ही हो ऐसा नहीं है, अन्यथा स्वरूप के समान ही पररूप से भी होने का प्रसंग आ जायेगा। एवं वस्तु सर्वथा अभावरूप ही हो ऐसा भी नहीं कह सकते अन्यथा पररूप से अभाव के समान ही स्वस्वरूप से भी अभाव का प्रसंग आ जायेगा। तथा वस्तु का स्वरूप से होना ही पररूप से अभाव हो ऐसा भी नहीं है। तथा पररूप से वस्तु का अभाव ही स्वस्वरूप से भाव हो ऐसा भी कहना युक्त नहीं है। क्योंकि उन भाव और अभाव की अपेक्षा करने योग्य निमित्तों
1 अभाववाचकेन । ब्या० प्र० । 2 परपरिकल्पितं वस्त्वनाभिलाप्यमवस्तुत्वादिति परमतप्रतिषेधः पूवार्द्धव्याख्यानं कारिकायाः । दि० प्र०। 3 विवादापन्तं सौगताभ्युपगतं पक्ष: अनभिलाप्यं भवतीति साध्यो धर्मः अवस्तुत्वात् यदवस्तु तदनभिलाप्यं यथा न किञ्चित् । सर्वथा तु भावः = स्याद्वाद्यभ्युपगतोभावः पक्षः वस्तु भवतीति साध्यो धर्मः । अभिलाप्यत्वात् । यत्पुनरभिलाप्यं तद्वस्तु । यथा खपुष्पाभाव: । अभिलाप्यं चेदं तस्माद्वस्तु भवति । अत्राह भावस्यवस्तुव्यस्थापकानुमाने खपुष्पाभावः इति दृष्टान्तः । साध्यं किं वस्तुते न रहितो न सहित एवेत्यर्थः, कस्मात्खपुष्पाभावो वस्तुनः स्वरूपं यतः । हि यस्मादन्यस्य स्वस्य कैवल्यं शुद्धत्वमितरस्य खपूष्पस्य विकलत्वमिति लोके सुप्रसिद्धम् । दि० प्र० । 4 विवादापन्नमवस्तु कथञ्चिद्वस्तु भवति कथञ्चिदभिलाप्यत्वात् खपुष्पवदितिकारिकाया अपरार्द्धव्याख्यातम् । ब्या० प्र० 15 पुष्पस्य । ब्या० प्र० । 6 वस्तुस्वरूपेण । इति पाठान्तरम् । दि० प्र०।
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