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________________ १७८ ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ४८ परिकल्पनामात्रादभिधीयते न पुनः प्रमाणसामर्थ्यात्, कस्यचिद्वस्तुन एव स्वद्रव्याद्यपेक्षालक्षणप्रक्रियाया विपर्यासादवस्तुत्वव्यवस्थितेः', 'स्वरूपसिद्धस्य घटस्य घटान्तररूपेणाघटत्ववत् कस्यचिद्वस्तुनो वस्त्वन्तररूपेणावस्तुत्वप्रतीतेः । ननु परस्परविरुद्धमिदमभिहितं वस्तुत्वेतरयोरन्योन्यपरिहारस्थितत्वादिति चेद्धावव्यतिरेकवाचिभिरपि वाक्यतामापन्न वाभिधानान्नात्र किंचिद्विरुद्धम् । न ह्यब्राह्मणमानयेत्यादिशब्दैक्यित्वमुपगतैब्राह्मणादिपदार्थाभाववाचिभिस्तदन्यक्षत्रियादिभावाभिधानमसिद्धं येनावस्त्वनभिलाप्यं स्यादिति शब्देन और वही अवस्तु ही सर्वथा अवाच्य है, ऐसा कहना युक्त है। किन्तु प्रमाण से व्यवस्थित वस्तु सर्वथा अवाच्य नहीं है । और सभी धर्मों से परिवजित वह अवस्तु भी पर द्वारा परिकल्पित मात्र से ही अवस्तु इस प्रकार से कही जाती है किन्तु प्रमाण की सामर्थ्य से नहीं। अर्थात् बौद्धों की कल्पना मात्र ही है कि सभी धर्मों से रहित जो चीज है वह अवस्तु है किन्तु वास्तव में ऐसी कोई अवस्तु विश्व में है ही नहीं । केवल पर द्रव्यादि की अपेक्षा से ही वह वस्तु 'अवस्तु' नाम से कही जाती है। कोई वस्तु ही स्वद्रव्यादि को अपेक्षा लक्षण प्रक्रिया के विपर्यय से अर्थात् पर द्रव्यादि की अपेक्षा से अवस्तु रूप से व्यवस्थित है । जैसे कि स्वरूप सिद्ध घट ही घटांतर-पटादि रूप से अघट कहलाता है उसी प्रकार से कोई भी वस्तु वस्त्वंतर रूप–पर वस्तु की अपेक्षा से अवस्तु रूप से प्रतीति में आती है। बौद्ध-आपने यह तो परस्पर विरुद्ध कथन कर दिया क्योंकि वस्तु और अवस्तु ये दोनों परस्पर में एक-दूसरे का परिहार करके ही रहती हैं । जैन- वाक्यपने को प्राप्त हुये भाव व्यतिरेक वाची अर्थात् अभाव वाचक शब्दों से भी भाव का कथन किया जाता है । इसमें कुछ भी विरोध नहीं है । अर्थात् जैसे कि ब्राह्मण का अभाव ही क्षत्रिय का भाव है। दोष का अभाव ही गुणों का सद्भाव है। इसलिये यहाँ अवस्तु का प्रतिपादन करने में किंचित् भी विरोध नहीं है । क्योंकि "अब्राह्मण मानय” इत्यादि शब्द जो कि वाक्यत्व को प्राप्त हो चुके हैं। और ब्राह्मण आदि पदार्थ के अभाव वाची हैं उन शब्दों से उन ब्राह्मणादि से भिन्न क्षत्रियादि भावों का कथन असिद्ध भी नहीं है । कि जिससे अवस्तु 'अवाच्य है।' इस प्रकार से वस्तु की शून्यता को कहने वाले एवं वाक्यपने को प्राप्त हुये शब्द से भिन्न वस्तु का कथन विरुद्ध हो सके। अर्थात् विरुद्ध नहीं हो सकता है। इसलिये बिल्कुल ठीक ही कहा है कि-"जो अवस्तु है वह अवाच्य ही है जैसे ना कुछ वस्तुशून्य । और जो वाच्य है वह वस्तु हो है जैसे आकाश पुष्प का अभाव । 1 परद्रव्यापेक्षयाऽवस्त्वेव वस्त्वितिभावः । यतः। दि० प्र०। 2 स्याद्वादिनामपेक्षया। दि० प्र० । 3 आह सौगतइति स्याद्वादिप्रतिपादितमन्योन्यविरुद्धं । कस्माद्वस्तुत्वावस्तुत्वयोः परस्परपरिहारस्थितत्वादिति चेत् । दि० प्र० । 4 भा । ब्या० प्र०। 5 ता। ब्या० प्र०। 6 तिङ्सुबन्तं च तयोर्वाक्यं क्रियाकारकान्विता । दि० प्र० । 7 ब्राह्मणादेः । दि० प्र०। 8 वस्त्वेवाभिलाप्यमन भिलाप्यं चेति भावः । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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