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________________ अवक्तव्यवाद का खण्डन तृतीय भाग [ १७७ निषेधयोः' इति कथंचित्सद्विशेषस्यैव पदार्थस्य' विधिनिषेधाधिकरणत्वसमर्थनात् । तथा च पराभ्युपगतमेव तत्त्वं सर्वथानभिलाप्यमायातमित्यभिधीयते ।-- "अवस्त्वनभिलाप्यं स्यात्सर्वान्तः परिवजितम् । 'वस्त्वेवावस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ॥४८॥ सकलधर्मविधुरमर्मिस्वभावं' तावदवस्त्वेव सकलप्रमाणाविषयत्वात् । तदेवानभिलाप्यं युक्तं, न पुनर्वस्तु प्रमाणपरिनिष्ठितम् । तदपि सर्वान्तः परिवजितमवस्तु पर से विधि निषेध को प्राप्त करता है । अर्थात् जिस भाव की प्रधानता अथवा अपेक्षा है उसकी विधि हो जाती है और जिस भाव की गौणता अथवा उपेक्षा होती है उसका निषेध हो जाता है। और उसी प्रकार से ही प्रवृत्ति एवं निवृत्ति की विसंवाद रहित सिद्धि होती है । अन्यथा रूप से तो विसंवाद देखा जाता है। अतः श्री समंतभद्र स्वामी ने यह बिल्कुल ठीक ही कहा है कि "असोँदो न भावस्तु स्थानं विधिनिषेधयोः" असत् रूप पदार्थ विधि निषेध का स्थान नहीं हो सकता है । इसलिये कथंचित् सत्-विशेष रूप पदार्थ ही विधि निषेध का आधार है इसका समर्थन किया गया है। उत्थानिका-पुन: उस प्रकार से पर-बौद्धों के द्वारा अभिमत तत्व ही सर्वथा "अवाच्य" है यह बात सिद्ध हो जाती है। इस बात को स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य अगली कारिका के द्वारा कहते हैं। सब धर्मों से रहित वस्तु में, सदा अवस्तु ही होंगी। वे तो "अवक्तव्य" कोटि में, वाच्य वचन से नहिं होंगी। वस्तु ही प्रक्रिया पलटने, से अवस्तु बन जाती है। पर द्रव्यादि चतुष्टय से ही, वस्तु अवस्तु कहाती है ॥४८।। कारिकार्थ-जो समस्त धर्मों से रहित है वह अवस्तु है और वही अवाच्य है। क्योंकि प्रक्रिया के विपर्यय से-स्वरूपादि से विपरीत पररूपादि से वस्तु ही अवस्तु रूप हो जाती है ।।४।। सकल धर्म से रहित अधर्मी स्वभाव अवस्तु ही है क्योंकि वह सकल प्रमाणों का विषय नहीं है। 1 विद्यमानविशेषस्य पदार्थस्य । ब्या० प्र०। 2 असद् भवतित देवानमिलाप्यं । ननु सर्वान्तःसहितं प्रमाण नयनिष्टं वस्तु । दि० प्र०। 3 अवाच्यम् । दि० प्र०। 4 रहितम् । दि० प्र०। 5 एवं पराभ्युपगममात्रा देव न प्रमाणसामर्थ्यादेतत कुत इति चेत् । दि० प्र०। 6 सदसदेकानेकत्वाद्य नेकान्तात्मकं वस्तु जैनरभ्युपगतमेवेति निश्चयात् । दि० प्र०। 7 सकलधर्मविधरत्वादेवामिस्वभावम् । ब्या० प्र०। 8 अवस्स्वेव । दि० प्र० । 9 उत्तरार्द्ध व्याख्याति । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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