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________________ १७६ ] अष्टसहस्रो [ तृ० प० कारिका ४७ पोढमपि स्वरूपेण कल्पनापोढमेव, न कल्पनापोढमिति कल्पनापेक्षया तस्यान्यथा कल्पनापोढत्वेन कल्पनाविरोधात्, सकलविकल्पवाग्गोचरातीतस्य' निरुपाख्यत्वप्रसङ्गात् । तद्वत्स्याद्वादिनां न किंचिद्विप्रतिषिद्धम् । अभावोनभिलाप्य इत्यपि' भावाभिधानादेकान्तवृत्तावेव दोषोद्धावाभिधानरपि कथंचिदभावाभिधानात् । यथैव ह्यभाव इति' भावान्तरमभिधीयतेऽनभिलाप्य इति चाभिलाप्यान्तरं तथा भावोभिलाप्य इत्यपि भावान्तराभिलाप्यान्तराभावः कथ्यते, तथा प्रतीते; अभावशब्दैर्भावशब्देश्चाभावस्य भावस्य चैकान्तोभिधाने 'शाब्दव्यवहारविरोधात्, तस्य प्रधानगुणभावेन विधिनिषेधयोरुपलम्भात्, तथैव प्रवृत्तिनि वृत्त्योरविसंवादसिद्धे रन्यथा विसंवादात् । ततः सूक्तमिदम् “असद्भ दो न "भावस्तु स्थानं विधिजाता है अत: निर्देश्य है । अन्यथा–यदि स्ववचन से भी अनिर्देश्य होगा तब तो वचन से कहने में विरोध आ जायेगा। उसी प्रकार से 'कल्पनापोढ़' भी स्वरूप से कल्पना पोढ़ ही है। किन्तु "कल्पनापोढ़" इस कल्पना की अपेक्षा से कल्पनापोढ़ नहीं है । क्योंकि सकल-विकल रूप वचन अगोचर को निरूपाख्यपने का प्रसंग आ जायेगा। उसी प्रकार से स्याद्वादियों के यहां किंचित् भी विरोध नहीं है। "अभाव अवाच्य है" इन शब्दों से भी भाव का ही कथन किया जाता है क्योंकि सर्वथा एकांत पक्ष में ही दोषोद्भावन शब्दों के द्वारा भी कथंचित-पररूप से अभाव का कथन किया जाता है। जिस प्रकार से 'अभाव' इस कथन से भावांतर-भिन्न भाव कहा जाता है। और "अवाच्य" इस कथन से भिन्न वाच्य कहा जाता है । तथैव भाव है "वाच्य है" इन शब्दों से भी भिन्न भाव और भिन्न वाच्य रूप अभाव कहा जाता है। क्योंकि वैसी ही प्रतीति आ रही है। एवं अभाव शब्दों से अभाव ही कहा है तथा भाव शब्दों से भाव ही कहा जाता है यदि ऐसा एकांत मानों तब तो शब्द से होने वाला व्यवहार विरुद्ध हो जायेगा। किन्तु वह शाब्दिक व्यवहार तो प्रधान और गौण रूप 1 वस्तुनः । ब्या० प्र०। 2 तथा प्रत्यक्ष निर्विकल्पकदर्शनं स्वरूपेण कल्पनातीतमपि कल्पनापोढमति कल्पनापेक्षया तस्य प्रत्यक्षस्य कल्पनासहितत्वमेव । अन्यथाकल्पनानपोढाभावे कल्पनापोढत्वेन कृत्वा कल्पना विरुद्धयते=सकलविकलपातीतस्य प्रत्यक्षस्य सकलवाग्गोवरातीतस्य स्वलक्षणस्य च निःस्वभावता प्रभजति । एवं यथा सौगतानां स्वलक्षणं स्वरूपेणाऽनिर्देश्यमपिस्वलक्षणमिति निर्देश्यं प्रत्यक्ष कल्पनापोढमपि कल्पनापोढं जातं तथा स्याद्वादिनामभिलाप्यमेवानभिलाप्यं विशेष्यमेवाविशेष्यं विशेषणमेवाविशेषणं भवति अत्र किञ्चिद्विरुद्धं नास्ति । दि० प्र० । 3 विरुद्धम् । ब्या० प्र०। 4 एताभ्यां शब्दाभ्याम् । ब्या० प्र०। 5 भावान्तरस्वभावत्वादभावस्य । ब्या०प्र०। 6 शब्दैः । दि० प्र०। 7 एतेन शब्देन । ब्या०प्र०। 8 विवक्षितभावादन्यो भावो भावान्तरो यथा पटे घटाभावः । ब्या० प्र०। 9 शब्द । इति पाठान्तरम् । दि० प्र०। 10 ता। ब्या० प्र०। 11 चावस्तु । इति पा० । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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