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________________ अवक्तव्य एकांत का निराकरण ] तृतीय भाग [ १७५ पुनरसतः, तद्विधिप्रतिषेधाविषयत्वात् । 'द्रव्याद्यन्तरभावेनेव स्वद्रव्यादिभावेनाप्पसत्त्वे कुतो विधिर्नाम ?। तदभावे न प्रतिषेधस्तस्य कथंचिद्विधिपूर्वकत्वात् । ततः कथंचिदभिलाप्यस्य सतः प्रतिषेधादनभिलाप्यत्वं युक्तम् । कथंचिद्विशेषणविशेष्यात्मनश्च सतोऽविशेष्यविशेषणत्वम् । इति नैकान्ततः किंचिदनभिलाप्यमविशेष्यविशेषणं वाभ्युपज्ञातव्यम् । [ बौद्धः स्वयमेवेति कथितं यत् "स्वलक्षणमनिर्देश्य प्रत्यक्षकल्पनारहित" तदपि एकांते न संभवत् अनेकांतमते एव संभवति । ] न चैतद्विरुद्धं स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यादिवत् । स्वलक्षणं हि स्वरूपेणासाधारणेनानिर्देश्यं नानिर्देश्यमिति शब्देन तथा निर्देश्यत्वादन्यथा वचनविरोधात् । तथा प्रत्यक्ष कल्पना स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल भावों के द्वारा असत् का प्रतिषेध नहीं किया जाता है क्योंकि वह असत् वस्तु विधि और प्रतिषेध का विषय नहीं है। अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के समान स्वद्रव्य, क्षेत्रादि भाव से भी वस्तु को असत् मान लेने पर विधि कैसे होगी ? अर्थात् असत् असत् की विधि कैसे हो सकेगी? और विधि के अभाव में प्रतिषेध भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि वह प्रतिषेध भी कथंचित् विधिपूर्वक ही होता है। इसलिये कथंचित्-स्वद्रव्यादि रूप से वाच्य रूप सत् वस्तु का ही प्रतिषेध होने से पर द्रव्यादि रूप से उसे 'अवाच्य' कहना युक्त है। __ और कथंचित्-स्वद्रव्यादि चतुष्टय से विशेषण विशेष्यात्मक सत् रूप वस्तु ही अविशेष्य विशेषण-अर्थात् विशेष्य विशेषण रहित हो सकती है अर्थात् स्वद्रव्यादि चतुष्टय से वस्तु अपने विशेषण विशेष्यभाव से सहित है और पर द्रव्यादि चतुष्टय से वही वस्तु पर के विशेषण विशेष्यभाव से रहित होने से अविशेषण विशेष्यरूप है ऐसा अर्थ है । इसलिये एकांत रूप से कोई भी वस्तु "अवाच्य" अथवा 'विशेष्य विशेषण रहित' नहीं है ऐसा आप बौद्धों को स्वीकार करना चाहिये। यह बात विरुद्ध भी नहीं है जैसे कि "स्वलक्षण अनिर्देश्य है" इत्यादि वाक्य आपने माने हैं। क्योंकि स्वलक्षण अपने असाधारण स्वरूप से अनिर्देश्य है किन्तु "अनिर्देश्य" इस शब्द के द्वारा अनिर्देश्य नहीं है “अनिर्देश्य" इस शब्द के द्वारा तो कहा ही 1 विधिः । दि० प्र०। 2 परद्रव्यादिना । ब्या० प्र०। 3 च शब्दोत्र भिन्न प्रक्रमे तेन विशेष्यविशेषणत्वम् च इष्टव्यम् । दि० प्र०। 4 सामान्येन कथञ्चित्सत एवाभिलाप्यत्वस्य प्रतिषेधादनभिलाप्यत्वादिकं विरुद्धं यतस्ततस्तदेकस्मिन्नपि वस्तुनि न विरुद्धमित्याह इति नैकान्तत इति । दि० प्र०। 5 पुनराह स्याद्वादी एतदस्मत प्रतिपादित विरुद्धं नास्ति यथा सौगताभ्युपगतं स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यादि सिद्धान्तः हि यस्मादनन्य सदशेन स्वभावेन स्वलक्षणं निरन्वपि परमाणुरूपं वस्तु प्रतिपाद्यं न । अनिर्देश्यमिति वाग्व्यवहारेण प्रतिपाद्यं भवति । एवं सौगतस्वलक्षणस्यानभिलाप्यत्वमायातमन्यथा तथा शब्देन स्वलक्षणं निदेश्यं न भवति चेत्तदा स्वलक्षणमिति वचन विरुद्धयते । दि० प्र०। 6 विकल्पः । ब्या०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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