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________________ १७४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४७ विशेषणविशेष्यभाव: ' संविदि 2, तत्राविशेषणविशेष्यत्वस्यैव विशेषणत्वात् सर्वथाप्यसतो विशेषणविशेष्यत्वस्य प्रतिषेधायोगात् । तथा हि । द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः संज्ञिनः "सतः । असद्भेदो न भावस्तु स्थानं' 'विधिनिषेधयोः ॥ ४७ ॥ [ सदूवस्तुन्येव विधिनिषेधौ घटेते न पुनः असद्वस्तुनि । ] द्रव्यक्षेत्रकालभावान्तरः " प्रतिषेधः संज्ञिनः ' सतः क्रियते स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्न 4 बौद्ध- प्रत्यक्ष के अनन्तर होने वाले विकल्प ज्ञान में “स्व का संवेदन" इस प्रकार से विशेषण - विशेष्यभाव प्रतिभासित होता है किन्तु स्वरूप में (निर्विकल्प ज्ञान में ) वह विशेषणविशेष्यभाव प्रतिभासित नहीं होता है। जैन - यदि ऐसी बात कहो तो “मैं विशेष्य विशेषण से रहित संवेदन हूँ" इस प्रकार से क्या वह स्वतः प्रतिभासित होता है ? यदि ऐसा आप स्वीकार कर लेंगे। तब तो संवेदन में विशेषण विशेषण भाव ही सिद्ध हो जाता है। क्योंकि वहाँ ( ज्ञान में ) अविशेषण विशेष्य ही विशेषण हो जाता है । किन्तु सर्वथा भी असत् रूप विशेषण विशेष्य का प्रतिषेध ही नहीं हो सकता है । उत्थानिका - उसी का स्पष्टीकरण करते हुये आगे की कारिका में कहते हैं संज्ञी स्वद्रव्यादि चतुष्टय से सत्रूप प्रसिद्ध रहे । उसका परद्रव्यादि चतुष्टय से ही सदा निषेध कहें ॥। असतरूप का निषेध कैसे हो सकता है कहो सही । चूंकि सर्वथा असत् पदारथ, विधि-निषेध का विषय नहीं ||४७ || कारिकार्थ-सत्रूप संज्ञी पदार्थ का ही द्रव्यांतर आदि की अपेक्षा से निषेध किया जाता है । क्योंकि असत्रूप वस्तु विधि निषेध का स्थान ही नहीं हो सकती है ॥४७॥ [ सत्वस्तु में ही विधि और निषेध घटते हैं, असत् वस्तु में नहीं । ] भिन्न-भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों के द्वारा संज्ञी सत् का ही प्रतिषेध किया जाता है किन्तु 1 संविदितविशेषणविशेष्यत्वस्यैव विशेषणत्वादिति पाठः । दि० प्र० । 2 हेत्वन्तरम् । ब्या० प्र० । 3 संज्ञा अभिधानं विद्यते यस्य । ब्या० प्र० । 4 स्वद्रव्यादिना । ब्या० प्र० । 5 आश्रयः । दि० प्र० । 6 अस्तित्वनास्तित्वयोः, विशेषः सद्भेदोभावः विधिनिषेधयोः स्थानं न भवतीति सम्बन्ध: । दि० प्र० । 7 भावान्तर । इति पाठान्तरम् | ब्या० प्र० । भा । ब्या० प्र० । 8 अभिलाप्यस्य । दि० प्र० । 9 यथा परद्रव्यादि चतुष्टयेनासत्त्वं तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेनापि वस्तुनः असत्त्वसति नाम अहो कुतो विधिः न कुतोप्यस्तित्वं = विधेरभावे प्रतिषेधो न स्यात् । कस्मात् प्रतिषेधः कथञ्चिद् सत्त्वपूर्वको यतः = यतं एवं ततः सत्त्वात्कथंञ्चिदभिलाप्यस्य वस्तुनः असरवादनभि लाप्यत्वं योग्यम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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