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________________ १८० ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ४८ परात्मना चाभाव एव स्वात्मना भाव इति वक्तुं युक्तः, तदपेक्षणीयनिमित्तभेदात् । स्वात्मानं हि निमित्तमपेक्ष्य भावप्रत्ययमुपजनयति 'सर्वोर्थः, परात्मानं त्वपेक्ष्याभावप्रत्ययम् । इति एकत्वद्वित्वादिसंख्यावदेकत्र वस्तुनि भावाभावयोर्भेदो व्यवतिष्ठते । [ एकत्र वस्तुनि एकत्वद्वित्वादिसंख्या निबधिं संभवंतीति स्पष्टयंति । ] न ह्येकत्र द्रव्ये द्रव्यान्तरमपेक्ष्य द्वित्वादिसंख्या प्रकाशमाना स्वात्ममात्रापेकत्वसंख्यातोनन्या प्रतीयते । नापि सोभयी' तद्वतो भिन्नव, तस्यासंख्येयत्वप्रसङ्गात्, का आश्रय करके ही वस्तु में भाव, अभाव रूप भेद है । अर्थात् जो स्वरूप से भाव है वही पररूप से अभाव है ऐसा बौद्धमत है किंतु जैनाचार्यों की मान्यता ऐसी नहीं है। सभी पदार्थ स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, रूप, स्वस्वरूप के निमित्त की अपेक्षा करके भाव स्वरूप ज्ञान को उत्पन्न करते हैं । एवं पर स्वरूप-पर द्रव्यादि की अपेक्षा करके ही अभाव-नास्तित्व रूप ज्ञान को उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार से एकत्व, द्वित्व आदि संख्या के समान वस्तु में भाव और अभाव की व्यवस्था है। [एक वस्तु में एकत्व, द्वित्व आदि संख्यायें बिना बाधा के संभव हैं इसी का स्पष्टीकरण ___करते हैं। ] एक ही द्रव्य में अन्य द्रव्य की अपेक्षा करके प्रकट हो रही द्वित्वादि संख्यायें स्वस्वरूप मात्र की अपेक्षा से होने वाली एकत्व संख्या से अभिन्न ही प्रतीति में नहीं आती हैं। किन्तु भिन्न रूप से ही प्रतीति में आ रही हैं । और संख्यावान् वस्तु से वे एकत्व-द्वित्व आदि दोनों प्रकार की संख्यायें भिन्न भी नहीं हैं । अन्यथा वह संख्यावान् वस्तु असंख्येय-संख्या रहित हो जायेगी। यदि आप कहें कि संख्या के समवाय से वस्तु संख्यावान् है सो भी कथन उस प्रकार से सिद्ध नहीं है । क्योंकि संख्यावान् से संख्या भिन्न ही है यह बात असिद्ध है। क्योंकि समवायी में समवाय का सम्बन्ध न होने से उस समवाय में स्वसमवायी के सम्बन्ध की कल्पना करने पर अनवस्था का प्रसंग आता है। अर्थात् वस्तु में एकत्व आदि संख्या यदि समवाय सम्बन्ध से स्थित है तो वह समवाय 1 भावाभावाभ्याम् । ब्या० प्र० । 2 स्वद्रव्यादिपरद्रव्यादिलक्षणम् । दि० प्र०। 3 सर्वोर्थ: स्वरूपमेव निमित्तमाश्रित्य भावज्ञानमुत्पादयति परस्वरूपमेव निमित्तमाश्रित्य अभावज्ञानमुत्पादयति लोके यथा एकत्वद्वित्वादिसंख्या कोर्थः संख्यास्वरूपं निमित्तमाश्रित्येकत्वज्ञानमुत्पादयति । पररूपं निमित्तमाश्रित्यद्वित्वादिज्ञानमुत्पादयति =एवमेकवस्तुनि भावाभावी व्यवतिष्ठते । दि० प्र०। 4 एकद्रव्ये द्रव्यान्तरापेक्षत्वे सति द्वित्वसंख्या स्वात्ममात्रापेक्षत्वे नहि। दि० प्र०। 5 एकस्मिन संख्यात्वे अन्य संख्यानान्तरभाश्रित्य द्वित्वादिसंख्यासजायमाना सती स्वरूपमात्राश्रयणकत्वसंख्यातः सकाशात् अन्यभिन्ना न प्रतीयते इति न । कोर्थः एकत्वसंख्यातो द्वित्वादिसंख्याभिन्ना एव । दि० प्र०। 6 वसः । दि० प्र० । 7 संख्या, एकत्वद्वित्वरूपा। ब्या० प्र०। 8 आशङ्का । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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