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________________ क्षणिक एकांत का निराकरण एवं अवक्तव्यवाद का निराकरण ] तृतीय भाग [ १६७ स्यात्तदा न संवृतिः । संवृतिरेव संतानस्तथोपचारादिति चेन्न, तस्य 'मुख्यप्रजोजनत्वविरोधात् । मुख्यप्रयोजनश्चायं, प्रत्यभिज्ञानादेर्मुख्यस्य कार्यस्य करणात् । उपचारस्तु नर्ते मुख्यात । यथाग्निर्माणवकः । इति स्खलति' हि तत्रानन्यप्रत्ययः, परीक्षाऽक्षमत्वात् । अत एवामुख्यार्थः प्रस्तुतासाधनम् । न ह्यग्निर्माणवक इत्युपचारात्पाकादावादीयते । तथा संतानोप्युपचरितः संतानिनियमहेतुर्न स्यात् । इति तदवस्थं संतानिसाकसू, संतानस्यैकस्य संतानिभ्यो भिन्नस्याभिन्नस्योभयरूपस्यानुभयरूपस्य चासंभवात् । तत एव, अर्थात् आपने संतान को संवृति रूप कहकर असत्य मान लिया है तब तो अन्य असत्य व्यवहारों में कार्य कारणभाव आपको मानना ही पड़ेगा। इस तरह तो मृत्पिड से वस्त्र की उत्पत्ति मानने में आपको कोई एतराज नहीं होना चाहिये । असत्यता दोनों जगह समान ही है। पुन: परस्पर भिन्न क्षणरूप सकल संतानियों में संकरता का परिहार नहीं हो सकेगा क्योंकि उपचरितरूप एक संतान से किन्हीं अपने इष्ट संतानियों की ही व्याप्ति है ऐसा नियम करना शक्य नहीं है अर्थात् व्यवक्षित संतानियों में ही संतान कार्य कारणादि संबंध वाला है किन्तु संतानांतरवर्ती अविवक्षित संतानियों में वह संतान कारण कार्यादि संबंध वाला नहीं है ऐसा नियम करना अशक्य ही है । यदि मुख्य अर्थवाला ही संतान होवे तब वह संवृति रूप नहीं रहा । बौद्ध-संवृति ही संतान है क्योंकि वैसा उपचार पाया जाता है। जैन-ऐसा नहीं कहना । पुनः संवृतिरूप उस संतान में मुख्य प्रयोजन का विरोध हो जायेगा। परन्तु यह संतान तो मुख्य प्रयोजन वाला ही है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञानादिरूप मुख्य कार्य को करने वाला है । मुख्य के बिना तो उपचार हो ही नहीं सकता है जैसे—माणवक-बालक को अग्नि कहना । अर्थात् कहीं अग्नि के होने पर ही अन्यत्र बालक में प्रयोजनवश-क्रोधादि विशेष देखकर अग्नि का उपचार किया जाता है न कि असत् रूप अग्नि के होने पर उपचार किया जाता है। इसलिये उन पूर्वोत्तर क्षणों में "अनन्य प्रत्यय" उपचरित ही हो जाता है। क्योंकि वह परीक्षा में अक्षम है । अतएव अमुख्य अर्थवाला उपचरित संतान प्रस्तुत-अनन्य प्रत्यय का अहेतुक है । 'बालक अग्नि है' इस प्रकार से बालक में अग्नि का उपचार करने से भोजन पकाना आदि क्रियाओं में वह बालक काम में नहीं लिया जाता है। उसी प्रकार से संतान भी उपचरित है अतः "इस संतानी का यह संतान हेतु है" इस नियम को करने में वह संतान हेतु नहीं हो सकता है। इसलिये संतानियों में संकर दोष ज्यों का त्यों मौजूद ही रहता है। क्योंकि संतानी से एक संतान भिन्न रूप है या अभिन्न रूप उभय रूप है या अनुभय रूप ? इन चारों प्रकारों के विकल्पों का होना असंभव ही है। 1 अस्त्वेतदित्युक्ते आह । दि० प्र०। 2 सन्तानात् । दि० प्र०। 3 इदानीं मुख्यप्रयोजनत्वविरोधादित्येतद् भावयति । ब्या० प्र०। 4 व्यभिचरति । ब्या० प्र०। 5 एकत्वप्रत्ययः । ब्या० प्र०। 6 सिद्धम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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