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________________ इस प्रकार सभी वस्तुयें कथंचित् भेदाभेदात्मक होकर ही प्रमाण का विषय हैं। क्योंकि मुख्य और गौण की विवक्षा पाई जाती है । जब वस्तुओं में अभेद धर्म विवक्षित होता है तब वह प्रधान हो जाता है और द्वैत धर्म गौण हो जाता है । जब द्वैत प्रधान होता है तब अद्वैत गौण हो जाता है । यही स्याद्वाद प्रक्रिया है । इस द्वितीय परिच्छेद में २४ से ३६ तक १३ कारिकाएं हैं । तृतीय परिच्छेद नित्य एकांत का निराकरण ___ सांख्य सभी पदार्थों को सर्वथा कूटस्थ नित्य मानते हैं, उनका कहना है कि आत्मा जानने रूप क्रिया का भी कर्ता नहीं है । ज्ञान और सुख प्रकृति (जड़) के धर्म हैं, केवल आत्मा इनका भोक्ता अवश्य है। ये लोग कारण में कार्य को सदा विद्यमान रूप ही मानते हैं। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि सभी पदार्थों में परिणमन दिख रहा है अतः वे सर्वथा नित्य नहीं हैं । ज्ञान और सुख ये आत्मा के ही स्वभाव हैं आत्मा से भिन्न नहीं हैं । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ इत्यादि रूप से जो स्वसंवेदन होता है वह ज्ञान के द्वारा ही होता है और वह अनुभव सर्वथा नित्य नहीं है। प्रत्येक वस्तु पूर्वाकार को छोड़कर उत्तराकार को ग्रहण करती है और उन दोनों अवस्थाओं में अन्वय सम्बन्ध पाया जाता है, इस अन्वय स्वभाव से वस्तू नित्य है तथा पूर्वाकार के त्याग और उत्तराकार के ग्रहण रूप से व्यय और उत्पाद स्व अतः अनित्य भी है। जीव ने मनुष्य पर्याय को छोड़कर देव पर्याय ग्रहण की तथा दोनों अवस्थाओं में 3 रूप जीवात्मा विद्यमान है ऐसा स्पष्ट है । तथा मिट्टी से कुंभकार घट बनाता है, घट उसमें विद्यमान था, कुंभकार ने प्रकट कर दिया यह कल्पना गलत है। हां! मिट्टी में घट, शक्ति रूप से अवश्य है अर्थात् मिट्टी में घट बनने की शक्ति अवश्य है कारक निमित्तों से प्रकट हो जाती है। अतः आत्मा आदि पदार्थ द्रव्य दृष्टि से नित्य हैं पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं। अनित्य एकांत का निराकरण __ बोद्ध का कहना है कि सभी पदार्थ सर्वथा क्षण-क्षण में नष्ट हो रहे हैं । उनमें जो कहीं स्थायित्व दिख रहा है, वह सब वासना मात्र है, ये लोग कारण का जड़मूल से विनाश मानकर ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। __ इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि सभी पदार्थों को सर्वथा क्षणिक मानने पर तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि सिद्ध नहीं होंगे, प्रात: अपने घर से निकल कर कोई भी व्यक्ति पूनः 'यह वही घर है जिसमें मैं रहता हूँ' ऐसा स्मृतिपूर्वक प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकने से वापस नहीं आ सकेगा । पुनः सारे लोकव्यवहार समाप्त हो जावेंगे । तथा मृत्पिड के सभी परमाणुओं का सर्वथा नाश हो गया। पुनः घट किससे बना? यह प्रश्न होता ही रहेगा, कारण कि विनाश के बाद कार्य की उत्पत्ति मानने से तो मिट्टी से ही घट क्यों बने ? तन्तु से घट और मृत्पिड से वस्त्र भी बन जायेंगे, जो के अंकुरों से चने पैदा होने लगेंगे, कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अतः कारण का कार्य रूप परिणत हो जाना ही कार्य है । तन्तु ही वस्त्र रूप परिणत होते हैं यही सिद्धान्त सत्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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