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________________ ( २२ ) के सिवाय द्वैतरूप (दो रूप ) कोई चीज नहीं मानते हैं, इनका कहना है कि जो भी द्वैतरूप संसार दिख रहा है वह सब अविद्या या कल्पना से ही है, वास्तविक नहीं है । इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, सुख-दुःख, विद्या अविद्या आदि रूप से सर्वत्र दो चीजें ही उपलब्ध होती हैं। इसमें एक को काल्पनिक कहने पर दूसरी भी काल्पनिक होने से कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । तथा आपने आगम से ब्रह्म तत्त्व को सिद्ध किया तो आगम और ब्रह्म दो हो गये । यदि आगम को ब्रह्मा का स्वभाव कहो तो भी स्वभाव और स्वभाव वाले की अपेक्षा दो हो गये । दूसरी बात यह है कि जैसे जैन के बिना अजैन नहीं बनता वैसे ही द्वैत के बिना अद्वैत की सिद्धि नहीं होती है। तथा जिस अविद्या से ये भेद दिख रहे हैं वह अविद्या परमब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न कहो तो द्वैत हो गया और यदि अभिन्न कहो तो तुम्हारा ब्रह्म अविद्या से अभिन्न होने से अविद्या रूप हो गया । इसलिये आपका ब्रह्म अविद्यारूप हो जाने से हमारा विद्या रूप द्वैत तत्त्व ही सिद्ध हो गया । द्वैत एकांत का निराकरण - योग के दो भेद हैं- नैयायिक और वैशेषिक, ये लोग द्रव्य से गुण को सर्वथा भिन्न मानते हैं । उनके मत से अग्नि से उष्णता सर्वथा भिन्न है, किन्तु जैनाचार्य पूछते हैं कि उष्णता के सम्बन्ध से पहले अग्नि उष्ण थी या ठण्डी ? यदि उष्ण थी तो उष्णता के सम्बन्ध ने क्या किया, यदि अग्नि ठण्डी थी और उष्णता ने उष्ण किया तो वह पूर्व में उष्ण गुण और ठण्डी अग्नि उपलब्ध नहीं होते हैं । वास्तव में उष्णता के बिना अग्नि का अस्तित्त्व ही असम्भव है । इसलिये जैनमत में द्रव्य से गुण को अभिन्न माना है और संज्ञा आदि के भेद से ही भिन्न माना है । बौद्ध ने कार्य-कारण को परस्पर में सर्वथा भिन्न माना है, उसका कहना है, कि मिट्टी का सर्वथा नाश होकर घड़ा बना है परन्तु यह बात किसी के गले नहीं उतरती है । इन्होंने कार्य (घड़े ) के अणु - अणु को भी सर्वथा भिन्न-भित्र माना है, किन्तु ऐसा मानने से तो घड़े में पानी कैसे भरा जा सकेगा ? अभिप्राय यह हुआ कि ब्रह्माद्वैतवादी चेतन-अचेतन, संसारी-मुक्त, कार्य-कारण आदि सभी में अद्वैत - एकरूपता सिद्ध करते हैं। योग और नैयायिक सभी द्रव्य-गुण आदि में और कार्यकारण आदि में द्वैत यानी पृथक्-पृथक्पना सिद्ध करते हैं । मीमांसक सर्वथा अद्वैत और पृथक्रूप उभय का एकांत मानता है। बौद्ध भेदाभेद को सर्वथा अवाच्य अवक्तव्य कहते हैं । इन चारों की मान्यतायें कथमपि संभव नहीं हैं । स्याद्वाद की सिद्धि जैन सिद्धांत के अनुसार सभी चेतन-अचेतन वस्तुरूप जगत् अद्वैत एकरूप है, क्योंकि सभी वस्तुएं सत् सामान्य की अपेक्षा अस्तिरूप हैं । सभी वस्तुयें पृथक्त्वरूप हैं क्योंकि संज्ञा, संख्या, लक्षण आदि से सभी में भेद है । सभी वस्तुएं उभयरूप हैं क्योंकि क्रम से अद्वैत और भेदरूप द्वैत की अपेक्षा है । सभी वस्तुयें अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ अद्वैत और द्वैत दोनों धर्म को कह नहीं सकते । सभी वस्तुयें अद्वैत अवक्तव्य रूप क्योंकि क्रम से अद्वैत की और युगपत् उभय की विवक्षा है । सभी वस्तुयें द्वैत अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से द्वैत की और युगपत् दोनों धर्मों की विवक्षा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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