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( २१ ) पुनः आचार्यदेव ने पांचवीं कारिका में कहा है कि "सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं चूंकि वे अनुमेय हैं।"
आगे छठी कारिका में स्पष्ट कह दिया है कि "वे निर्दोष आप्त-भगवान् आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं।"
इस कारिका के विवेचन में आचार्यश्री विद्यानन्द महोदय ने अन्य मतावलंबियों द्वारा मान्य मोक्ष का निराकरण करके जैन सिद्धांत के अनुसार मोक्ष तत्त्व का अच्छा विवेचन किया है।
इस तरह अष्टसहस्री के प्रकाशित प्रथम भाग में मात्र इन ६ कारिकाओं का ही विवेचन है।
आगे अष्टसहस्री द्वितीय भाग में प्रथम परिच्छेद की शेष ७ से २३ तक कारिकाओं का विवेचन है। अष्टसहस्री द्वितीय भाग
द्वितीय भाग में श्री समंतभद्र स्वामी ने जिनेन्द्रदेव के मत को "अमृतस्वरूप" कहा है। आगे इसी भाग में प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव अन्योन्याभाव और अत्यंताभाव इन चार प्रकार के अभावों का अच्छा विवेचन है । पुन:
कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥१४॥
इस कारिका १४ के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि-हे भगवन् ! आपके शासन में प्रत्येक वस्तु कथंचित् सत्रूप ही है, कथंचित् असत्रूप ही है, कथंचित् उभयरूप ही है, कथंचित् अवक्तव्य ही है । चकार शब्द से
तु कचित् सत् और अबक्तव्यरूप ही है, कथंचित् असत् और अबक्तव्यरूप ही है, कथंचित् सत् असत और अवक्तब्यरूप ही है । यह सब नयों की अपेक्षा से ही होता है सर्वथा नहीं।
___आगे कहा है कि “वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा से सत्रूप ही है और परचतुष्टय की अपेक्षा से असत्रूप ही है इत्यादि।
अन्त में स्याद्वाद की प्रक्रिया को घटित किया है। इस तरह प्रथम परिच्छेद में १ से २३ तक २३ कारिकाएं हैं । इस प्रथम परिच्छेद का विवेचन विस्तृत होने से यहां तक ग्रन्थ का "पूर्वार्ध" होता है।
__ आगे तृतीय भाग में द्वितीय परिच्छेद से लेकर दसवें परिच्छेद तक ग्रन्थ पूर्ण हुआ है। यह ग्रन्थ का "उत्तरार्ध" है।
द्वितीय परिच्छेद अद्वैत एकांत का निराकरण
एक ब्रह्माद्वैतवादी जनों का सम्प्रदाय है । ये लोग कहते हैं कि 'सर्व व खलु इदं ब्रह्म नेह नानास्ति कश्चन ।' यह सारा जगत् एक ब्रह्मस्वरूप है, यहां भिन्न वस्तुयें कुछ नहीं हैं । ये चेतन-अचेतन जितने भी पदार्थ दिख रहे हैं वे सब एक ब्रह्म की ही पर्यायें हैं। ऐसे ही शब्दाद्वैतवादी सारे जगत् को एक शब्दब्रह्मस्वरूप ही मानते हैं । विज्ञानद्वैतवादी सारे जगत् को एक ज्ञानमात्र ही मानते हैं, चित्राद्वैतवादी सारे जगत् को चित्रज्ञानरूप कहते हैं और शून्याद्वैतवादी सब कुछ शून्यरूप ही मानते हैं । ऐसे ये पांच अद्वैतवादी हैं, ये लोग एक अद्वैत
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