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________________ ( २० ) पाये जाते हैं अतः इनसे भी आप महान् नहीं हैं अर्थात् देवों के शरीर में भी पसीना, मल-मूत्रादि नहीं हैं, उनके यहां भी गंधोदक वृष्टि आदि वैभव होते हैं अत: इन महोदय से भी आप हमारे पूज्य नहीं हैं । मानों पुनः भगवान् कहते हैं कि हे समंतभद्र ! रागादिमान् देवों में भी असंभवी ऐसे तीर्थकृत सम्प्रदाय को चलाने वाला "मैं तीर्थंकर हूँ" अतः मैं अवश्य ही तुम्हारे द्वारा स्तुति करने के योग्य हूँ। इस पर श्री समंतभद्र स्वामी प्रत्युत्तर देते हुये के समान कहते हैं कि हे भगवान् ! आगमरूप तीर्थ को करने वाले सभी तीर्थंकरों के आगमों में परस्पर में विरोध पाया जाता है अतः सभी तो आप्त हो नहीं सकते अर्थात् बुद्ध, कपिल, ईश्वर आदि सभी ने अपने-अपने आगमों को रचकर अपना-अपना तीर्थ चलाकर अपने को तीर्थंकर माना है किन्त सभी के आगम में परस्पर में विरोध होने से सभी सच्चे आप्त नहीं हो सकते हैं इसरि एक ही परमात्मा-सच्चा आप्त हो सकता है-ऐसा अर्थ ध्वनित कर देते हैं । इस कारिका की अष्टसहस्री टीका में श्री विद्यानन्द महोदय ने बहुत ही विस्तार से सभी संप्रदायों का परसर में विरोध दर्शाया है। अन्य सम्प्रदायों में वेदों को प्रमाण मानने वाले वैदिक संप्रदायी हैं। उनमें मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक एवं सांख्य वैदिक कहलाते हैं और चार्वाक, बौद्ध आदि वेद को नहीं मानने वाले अवैदिक कहलाते हैं। अत: चार्वाक और शन्यवादी बौद्ध नास्तिक हैं बाकी सभी आस्तिक की कोटि में आ जाते हैं । अस्तु ! सभी के संप्रदायों के परस्पर विरोध का यहां किचित् दिग्दर्शन कराते हैं। ___ चार्वाक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार जड़ तत्त्वों को ही मानता है। उसका कहना है कि इन्हीं भूतचतुष्टयों के मिलने से संसार बना है और इन्हीं भूतचतुष्टयों से आत्मा की उत्पत्ति होती है । यह चार्वाक परलोक गमन, पूण्य पाप का फल आदि नहीं मानता है। वेदांती एक ब्रह्मरूप ही तत्त्व स्वीकार करता है, उसका कहना है कि एक परम ब्रह्म ही तत्त्व है, संपूर्ण विश्व में जो चेतन अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं, हम और आप सभी उस एक परब्रह्म की ही पर्यायें हैं, यह चर-अचर जगत् मात्र अविद्या का ही विलास है इत्यादि । ऐसे ही बौद्ध सभी वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं । उनका कहना है कि एक क्षण के बाद सभी वस्तुयें जड़ मूल से नष्ट हो जाती हैं जो उनका ठहरना द्वितीय आदि क्षणों में दिख रहा है वह सब कल्पनामात्र है वासना से ही ऐसा अनुभव आता है। सांख्य कहता है कि सभी वस्तुयें सर्वथा नित्य ही हैं, कोई वस्तु नष्ट नहीं होती है किन्तु तिरोभूत हो जाती है एवं किसी वस्तु की उत्पत्ति भी नहीं है वस्तु का आविर्भाव ही होता है। . इस तृतीय कारिका के विवेचन में आचार्य प्रवर श्री विद्यानंद महोदय ने वेद के मानने वालों में ही परस्पर विरोध को दिखाया है। प्रभाकर वेद के वाक्यों का अर्थ "नियोग" करते हैं । ब्रह्माद्वैतवादी वेद के वाक्यों का अर्थ "विधिरूप" करते हैं और भावनावादी भाट्ट वेद वाक्यों का अर्थ "भावनारूप" ही करते हैं। इन तीनों के आशय का विस्तार से यहां खंडन किया गया है । चार्वाक सर्वज्ञ का अभाव कहता है इसका खंडन करते हुये आचार्य देव ने तत्त्वोपप्लववाद का भी अच्छी तरह से खंडन किया है। इस तरह एकांतवादों में परस्पर विरोध दिखाकर उन सबका खंडन करके आचार्यदेव ने चौथी कारिका में कहा है कि-"किसी न किसी में दोष और आवरण का संपूर्णतया अभाव अवश्य ही होगा क्योंकि आज भी हम सभी लोगों में कुछ न कुछ रूप दोष और आवरणों की तरतमता देखी जाती है।" इसमें संसार और संसार के कारणों का तथा मोक्ष और मोक्ष के कारणों का अच्छा विवेचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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